वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1.गीता में कुल कितने अध्याय हैं?
(A) बारह
(B) पंद्रह
(C) अठारह
(D) पच्चीस
Ans. (C)
2. भगवद् गीता के संबंध में निम्नलिखित में से कौन-सा विकल्प सही है ?
(A) भगवद् गीता कृष्ण-अर्जुन संवाद का प्रतिफल है
(B) भगवद् गीता महाभारत महाकाव्य का भाग है
(C) भगवद् गीता भगवान का गीत है
(D) इनमें से सभी
Ans. (D)
3. भगवद् गीता के अनुसार वह कर्म क्या है जो बिना फल की इच्छा के किया जाता है ?
(A) सकाम कर्म
(B) निष्काम कर्म
(C) विकर्म
(D) अकर्म
Ans. (B)
4. निम्नलिखित में से कौन भगवद् गीता के अनुसार ईश्वर के अवतार हैं ?
(A) अर्जुन
(B) कर्ण
(C) कृष्ण
(D) भीम
Ans. (C)
5. भारतीय दर्शन में कर्म सिद्धांत के अनुसार कर्म का फल क्या हो सकता है ?
(A) बंधन
(B) जीवन में दुःख
(C) पुनर्जन्म
(D) इनमें से सभी
Ans. (D)
6. ‘भगवद्गीता’ का शाब्दिक अर्थ क्या है ?
(A) ईश्वर का गीत
(B) ईश्वर का अस्तित्व
(C) ईश्वर का स्वरूप
(D) ईश्वर की संख्या
Ans. (A)
7. निष्काम कर्म क्या है ?
(A) कर्म का त्याग है
(B) कर्मफल का त्याग है
(C) सकाम कर्म है
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (B)
8. भगवद्गीता में कौन से विचार पाये जाते हैं ?
(A) निष्काम कर्म
(B) योग की अवधारणा
(C) लोक संग्रह
(D) इनमें से सभी
Ans. (D)
9. गीता का उपदेश है-
(A) संकाम कर्म
(B) निष्काम कर्म
(C) कर्म से संन्यास
(D) इनमें से सभी
Ans. (B)
10. भगवद्गीता में ‘योग’ शब्द का प्रयोग किन अर्थ में हुआ है ?
(A) समाधिवाचक
(B) संबंधवाचक
(C) (A) एवं (B) दोनों
(D) दोनों में से कोई नहीं
Ans. (D)
11. स्वधर्म का वास्तविक संबंध है-
(A) सामान्य धर्म से
(B) वर्णाश्रम धर्म से
(C) (A) एवं (B) दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (D)
12. किनके मतानुसार ‘गीता’ महाभारत का अंग है ?
(A) अरविन्द घोष
(B) महात्मा गाँधी
(C) डॉ० राधाकृष्णन
(D) बाल गंगाधर तिलक
Ans. (C)
13. ‘गीता’ में किनके विचार से ईश्वर की वाणी मानी गयी है
(A) कृष्ण
(B) अर्जुन
(C) व्यास
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (A)
14. उपनिषद् को कहा जाता है-
(A) योग विद्या
(B) ब्रह्म विद्या
(C) ज्ञान विद्या
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (B)
15. गीता में किस योग की चर्चा हुई है ?
(A) ज्ञान योग
(B) भक्तियोग
(C) कर्मयोग
(D) ये सभी
Ans. (D)
16. ‘गीता’ की रचना किसके द्वारा की गयी है ?
(A) व्यास के द्वारा
(B) कृष्ण के द्वारा
(C) अर्जुन के द्वारा
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (A)
17. निष्काम कर्म का मूल सिद्धांत है-
(A) शारीरिक सुख
(B) कर्त्तव्य के लिए कर्त्तव्य
(C) (A) एवं (B) दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (B)
18. महात्मा गाँधी ने गीता को कहा है-
(A) माता
(B) पिता
(C) बाइबिल
(D) कुरान
Ans. (A)
19. गीता के अनुसार योग है-
(A) त्याग
(B) समाधि
(C) ईश्वर से मिलन
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (C)
20. ‘गीता-रहस्य’ की रचना किसने की है ?
(A) बाल गंगाधर तिलक
(B) महात्मा गाँधी
(C) अरविन्द घोष
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (A)
21. किसके अनुसार ‘गीता कर्म का विज्ञान है ?
(A) बाल गंगाधर तिलक
(B) विनोबा भावे
(C) अरविन्द घोष
(D) महात्मा गाँधी
Ans. (A)
22. ‘अनासक्ति-योग’ नामक ग्रंथ की रचना किसने की ?
(A) बाल गंगाधर तिलक
(B) महात्मा गाँधी
(C) अरविन्द घोष
(D) डॉ. राधाकृष्णन
Ans. (B)
23. भगवद्गीता को कर्मशास्त्र किसने कहा ?
(A) भगवान दास
(B) बाल गंगाधर तिलक
(C) गाँधीजी
(D) पं. नेहरू
Ans. (B)
24. गीता में ‘मोक्ष’ के कौन-कौन से मार्ग बताए गए हैं ?
(A) ज्ञान
(B) कर्म
(C) भक्ति
(D) ये सभी
Ans. (D)
25. त्रिगुण होते हैं-
(A) तम
(B) रज
(C) गुण
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (B)
26. गीता में परमात्मा के कौन स्वरूप बतलाए गए हैं ?
(A) व्यक्त
(B) अव्यक्त
(C) व्यक्त एवं अव्यक्त
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (C)
27. किसके अनुसार- ‘गीता माता है’ ?
(A) बाल गंगाधर तिलक
(B) विनोबा भावे
(C) श्री अरविन्द
(D) महात्मा गाँधी
Ans. (D)
28. किसके अंतिम भाग को उपनिषद कहते हैं ?
(A) पुराण
(B) ज्ञान
(C) वेद
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (C)
29. गीता में ‘स्वधर्म’ का क्या अभिप्राय है ?
(A) जिस वर्ण का जो स्वाभाविक कर्म है वही उसका ‘स्वधर्म’ है
(B) वर्णों के वर्णेत्तर कर्म ही उनका स्वधर्म है
(C) उपर्युक्त दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (A)
30. गीता में ‘योग’ शब्द का व्यवहार हुआ है-
(A) आत्मा से मिलन का
(B) आत्मा का परमात्मा से मिलन का
(C) परमात्मा से मिलन का
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (B)
31. वेद कितने हैं ?
(A) एक
(B) दो
(C) तीन
(D) चार
Ans. (D)
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. स्वधर्म की व्याख्या करें।
अथवा, स्वधर्म के तात्पर्य को स्पष्ट करें।
अथवा, स्वधर्म की परिभाषा दें।
Ans. गीता के अनुसार जिस वर्ण का जो स्वाभाविक कर्म है, वही उसका स्वधर्म है। स्वभाव के अनुसार जो विशेष कर्म निश्चित है, वही स्वधर्म है। स्वधर्म के पालन से मानव परम सिद्धि का भागी होता है। स्वधर्म का अनुष्ठान मनुष्य के लिए कल्याणकारी है। चारों वर्ण का कर्म प्रत्येक वर्ण के स्वभावजन्य गुणों के अनुसार पृथक्-पृथक् विभाजित किया गया है। इन्द्रियों का दमन, निग्रह, पवित्रता, तप, शान्ति, क्षमा भाव सरलता आध्यात्मिक ज्ञान आदि ब्राह्मण के स्वभाविक कर्म हैं। शूर वीरता, तेजस्विता, धैथ, चातुर्य, युद्ध से न भागना, दान देना, स्वामिभाव आदि क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म है। कृषि, गोपालन, वाणिज्य वैश्यों के स्वाभाविक कर्म है। अन्ततः सब वर्गों की सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है। गीता के अनुसार जो कर्म स्वधर्म के अनुसार स्थिर कर दिए गए हैं, उनका त्याग करना तथा परधर्म का अनुष्ठान करना उचित नहीं है। गीता के अनुसार अच्छी तरह से न किया गया द्विगुण-स्वधर्म, अच्छी तरह से किए हुए पर धर्म से श्रेष्ठ है कि स्वभाव से नियत किए हुए कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त करता है।
2. निष्काम कर्म की व्याख्या करें।
Ans. फल की आशा रखे बिना कर्म करना निष्काम कहलाता है। निष्काम कर्म गीता का मौलिक उपदेश है, सकाम कर्म करने वाला व्यक्ति बंधन ग्रस्त होता है, किन्तु निष्काम कर्म से व्यक्ति बंधन में नहीं फँसता, बल्कि मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। बौद्ध दर्शन के चार आधार हैं- दुःख, दुःख समुदाय, दुःख निरोध और दुःख निरोध मार्ग। प्रथम आर्यसत्य के अनुसार संसार दुःख भरा है। लौकिक सुख की वस्तुतः दुःख से घिरा है। सुख को प्राप्त करने के प्रयास में दुःख है, प्राप्त हो जाने पर यह नष्ट न हो जाए यह विचार दुःख देता है और नष्ट हो जाने पर दुःख तो हैं ही। पाश्चात्य विचारक काण्ट ने भी कर्तव्य कर्तव्य के लिए बात की है, जो गीता के निष्काम कर्म से मेल खाता है।
3. क्या निष्काम कर्म सम्भव है ?
Ans. हाँ, निष्काम कर्म सम्भव है। क्योंकि निष्काम कर्म का अर्थ है कि कर्त्ता को बिना फल या परिणाम की कामना के क्रियाशील होना । एक असाधारण व्यक्ति का कर्म निष्काम होता है, क्योंकि वह लोकसंग्रह की भावना से प्रेरित होकर कर्म करता है। जैसे- एक सैनिक देश की सुरक्षा हेतु हँसते-हँसते अपने प्राणों को न्यौछावर कर देता है। एक माँ अपने नवजात शिशु की देखरेख करती है इत्यादि ।
4. अनासक्त कर्म पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
Ans. गीता का कर्मयोग हमें त्याग की शिक्षा नहीं देता बल्कि फल त्याग की शिक्षा देती है गीता का यह उपदेश व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी सही है। यदि हम किसी फल की इच्छा से कर्म करना प्रारम्भ करते हैं तो फल की चाह इतनी अधिक हो जाती है कि कर्म में भी हम सही से काम नहीं कर पाते हैं किन्तु कर्म फल त्याग की भावना से अगर हम कर्म करते हैं तो उससे उसका फल और अधिक निश्चित हो जाता है।
5. कर्म में त्याग की व्याख्या करें।
Ans. कर्मयोगी कर्म का त्याग नहीं करता वह केवल कर्मफल का त्याग करता है और कर्मजनित दुःखों से मुक्त हो जाता है। उसकी स्थिति इस संसार में एक दाता के समान है और वह कुछ पाने की कभी चिन्ता नहीं करता। वह जानता है कि वह दे रहा है और बदले में कुछ माँगता नहीं और इसलिए वह दुःख के चंगुल में नहीं पड़ता। वह जानता है कि दुःख का बन्धन ‘आसक्ति’ की प्रतिक्रिया का ही फल हुआ करता है।
गीता के अनुसार कर्मों से संन्यास लेने अथवा उनका परित्याग करने की अपेक्षा कर्मयोग अधिक श्रेयस्कर है। कर्मों का केवल परित्याग कर देने से मनुष्य सिद्धि अथवा परमपद नहीं प्राप्त करता। मनुष्य एक क्षण भी कर्म किए बिना नहीं रहता। सभी अज्ञानी जीव प्रकृति से उत्पन्न सत्व, रज और तम इन तीन गुणों से नियंत्रित होकर परवश हुए, कर्मों में प्रवृत्त किए जाते हैं। मनुष्य यदि बाह्य दृष्टि से कर्म न भी करे और विषयों में लिप्त न हो, तो भी वह उनका मन से चिंतन करता है। इस प्रकार का मनुष्य मूढ़ और मिथ्या आचरण करने वाला कहा गया है। कर्म करना मनुष्य के लिए अनिवार्य है। उसके बिना शरीर का निर्वाह भी संभव नहीं है। भगवान कृष्ण स्वयं कहते हैं कि तीनों लोकों में उनका कोई भी कर्तव्य नहीं है। उन्हें कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त करनी नहीं रहती। फिर भी वे कर्म में संलग्न रहते हैं। यदि वे कर्म न करें तो मनुष्य भी उनके चलाए हुए मार्ग का अनुसरण करने से निष्क्रिय हो जाएँगे। इससे लोक स्थिति के लिए किए जाने वाले कर्मों का अभाव हो जाएगा जिसके फलस्वरूप सारी प्रजा नष्ट हो जाएगी। इसलिए आत्मज्ञानी मनुष्य को भी जो प्रकृति के बंधन से मुक्त हो चुका है, सदा कर्म करते रहना चाहिए। अज्ञानी मनुष्य जिस प्रकार फल प्राप्ति की आकांक्षा से कर्म करता है, उसी प्रकार आत्मज्ञानी को लोकसंग्रह के लिए आसक्तिरहित होकर कर्म करना चाहिए। इस प्रकार आत्मज्ञान से संपन्न व्यक्ति ही गीता के अनुसार, वास्तविक रूप से कर्मयोगी हो सकता है।
6. लोक संग्रह से आप क्या समझते हैं ?
Ans. सुख सुविधा हेतु द्रव्यों का संग्रहण लोक संग्रह कहलाता है।
30. लोक संग्रह और निष्काम कर्म में क्या सम्बन्ध है ?.
Ans. गीता में व्यावहारिक नैतिकता के स्तर में लोक संग्रह को अर्थात् सामाजिक कल्याण को परम पुरुषार्थ माना है। गीता की यह स्पष्ट मान्यता है कि आसक्ति रहित होकर लोक संग्रह को ध्यान में रखकर किये गये कर्म से ही व्यक्ति संसिद्धी प्राप्त करता है। लोक संग्रह का साधन निष्काम कर्म है, सकाम कर्म नहीं।
गीता के अनुसार सर्वभूत हित के लिए विद्वान पुरुष को अनासक्त होकर कर्म करना चाहिए। आसक्ति रहित एवं (कारण) हेतु रहित होकर समस्त भूतों के प्रति अहिंसा, आक्रोध, अद्रोह, करुणा, सत्य, परोपकार व सद्भावना आदि धर्मों का पालन दैवी सम्पदा के लक्षण माने गये हैं।
7. चित्रवृत्तियाँ क्या हैं ?
Ans. दो वस्तुओं के बीच प्राप्ति का एक आवश्यक संबंध जो व्यापक माना जाता है, चित्तवृत्तियाँ कहलाती हैं।
8. स्थितप्रज्ञा का अर्थ लिखें।
Ans. लोकसंग्रह के लिए स्थितप्रज्ञा की आवश्यकता होती है। स्थितप्रज्ञा का अर्थ है कि बुद्धि की स्थिरता । जिसकी बुद्धि में स्थिरता होती है,
उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं। अतः स्थितप्रज्ञ ही लोक कल्याण कर सकता है। कहा गया है- कुर्यात् विद्वान् असक्तः चिकीर्षु लोकसंग्रहः । (विद्वान को अनासक्त होकर लोकसंग्रह के लिए कार्य करना चाहिए।) विद्वान वही होता है जिसकी बुद्धि सुख-दुःख, हर्ष-विषाद सभी परिस्थितियों में समान रूप से स्थिर रहती है। जो हर परिस्थिति को उदासीन (तटस्थ भाव से, निर्विकार रूप में, ग्रहण करता है, उसकी बुद्धि ही समान होती है। ऐसे ही समान या समबुद्धिवाले को विद्वान या स्थितप्रज्ञ कहते हैं। दूसरे शब्दों में स्थितप्रज्ञता वह स्थिति है जहाँ सुख-दुःख, हर्ष-विषाद आदि विकारों का पूर्णतः अन्त हो जाता है। इन विकारों के अंत होने पर बुद्धि स्थिर हो पाती है अर्थात् मनुष्य हर परिस्थिति में अप्रभावित रहता है, उसमें किसी प्रकार की उद्विग्नता नहीं रहती है। अद्विग्नताविहीन बुद्धि, विकारहीन बुद्धि ही ‘समबुद्धि’ कहलाती है। गीता में कहा गया है कि जो मनुष्य सहृदयों, मित्रों, शत्रुओं, तटस्थ व्यक्तियों, ईर्ष्यालुओं, पापियों आदि में समबुद्धिवाला होता है, वही विशिष्ट होता है। यह विशिष्ट व्यक्ति ही स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
9. गीता का कर्म योग क्या है ?
Ans. गीता का मुख्य विषय कर्मयोग है। गीता में श्रीकृष्ण किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को निरन्तर कर्म करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। गीता में सत्य की प्राप्ति के निमित्त कर्म को करने का आदेश दिया गया है। वह कर्म जो असत्य तथा अधर्म की प्राप्ति के लिए किया जाता है, कर्म की श्रेणी में नहीं आते हैं। गीता में कर्म से विमुख होने को महान मूर्खता की संज्ञा दी गयी है। व्यक्ति को कर्म के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहने की बात की गयी है साथ ही कर्म के फलों की चिन्ता नहीं करने की बात भी कही गयी है। गीता में कर्मयोग को ‘निष्काम कर्म’ की भी संज्ञा दी गयी है। इसका अर्थ है, कर्म को बिना किसी फल की अभिलाषा से करना। डॉ० राधाकृष्णन ने कर्मयोग को गीता का मौलिक उपदेश कहा है।
10. ऐच्छिक कर्मों के महत्व बतायें।
Ans. ऐच्छिक कर्म को ही नैतिकता का क्षेत्र कहते हैं। ऐच्छिक कर्म का अर्थ वह कार्य या कर्म है जो कर्त्ता के द्वारा अपनी इच्छा से उचित-अनुचित का विचार कर, शुभ-अशुभ या साधन आदि का संकलप करके किया जाए।