वास्तविकता की प्रकृति

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1.लाइबनीज के अनुसार ज्ञान का स्रोत क्या है ?

(A) अनुभव                                        

(B) बुद्धि

(C) (A) और (B) दोनों                        

(D) इनमें से कोई नहीं

Ans. (B)

2. सत्कार्यवाद के रूप में है-

(A) आरम्भवाद                                  

(B) परिणामवाद

(C) विवर्त्तवाद                                   

(D) (B) और (C) दोनों

Ans. (D)

3. ‘पूर्व-स्थापित सामंजव्यवाद’ दिया गया है—

(A) देकार्त द्वारा                               

(B) स्पीनोजा द्वारा

(C) लाइबनीज द्वारा                          

(D) ह्यूम द्वारा

Ans. (C)

4. स्पीनोजा ने स्वीकारा है-

(A) अंतः क्रियावाद                                      

(B) समानान्तरवाद

(C) पूर्वस्थापित सामंजस्यवाद             

(D) इनमें से कोई नहीं

Ans. (B)

5. ‘ईश्वर तथा जगत एक ही तत्व के दो नाम हैं’ ऐसा विचार किनका है ?

(A) देकार्त                                          

(B) स्पीनोजा

(C) काण्ट                                          

(D) बेकन

Ans. (A)

6. निम्न में से कौन एक समानान्तरवाद का समर्थक है ?

(A) लाइबनित्स                                  

(B) लॉक

(C) देकार्त                                          

(D) स्पिनोजा

Ans. (D)

7. ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारने में लीब्नीज पर किनका प्रभाव था

(A) प्लेटो का                                     

(B) अरस्तू का

(C) लाइबनित्स का                            

(D) स्पीनोजा एवं देकार्त का

Ans. (D)

8. किसने कहा कि ईश्वर, आत्मा और ब्रह्माण्ड का ज्ञान बुद्धि द्वारा संभव नहीं है ?

(A) काण्ट                                         

(B) देकार्त

(C) पीनोजा                                        

(D) बेकन

Ans. (B)

9. एसे इस्ट परसीपी के सिद्धांत किसने दिया है ?

(A) ह्यूम                                           

(B) बर्कले

(C) मूरे                                              

(D) प्लेटो

Ans. (C)

10. प्रयोजनात्मक, विश्वमीमांसीय एवं सत्ता मीमांसीय युक्ति के संबंध है-

(A) ईश्वर के अस्तित्व से                  

(B) आत्मा के अस्तित्व से

(C) जड़ के अस्तित्व से                     

(D) इनमें से कोई नहीं

Ans. (A)

11. “सृष्टि रचना किसी उद्देश्य से की गई है” ऐसा कथन ईश्वर को प्रमाणित करने के लिए किया जाता है-

(A) जगत्-संबंधी तर्क में                    

(B) कारणता-संबंधी तर्क में

(C) सत्तावादी तर्क में                        

(D) प्रयोजक-मूलक तर्क में

Ans. (C)

12. ईश्वर का अस्तित्व आदि कारण के रूप में सिद्ध होता है-

(A) जगत-संबंधी तर्क में                    

(B) प्रयोजन-मूलक तर्क में

(C) कारणता-संबंधी तर्क में                

(D) सत्तावादी तर्क में

Ans. (D)

13. किसने स्पष्ट किया कि ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए सत्तामूलक, विश्वमूलक तथा उद्देश्यमूलक सभी प्रमाण निष्फल ही समझे जा सकते हैं ?

(A) काम्ट                                          

(B) देकार्त

(C) स्पीनोजा                                               

(D) इनमें से कोई नहीं

Ans. (B)

14. “भावना से वास्तविकता सिद्ध नहीं होती।” रसगुल्ले का विचार अपने पर रसगुल्ला सामने नहीं चला आता है। ऐसा किस प्रमाण के विरुद्ध में कहा जाता है ?

(A) सत्तामूलक प्रमाण                       

(B) कारण-कार्य-विषयक प्रमाण

(C) प्रयोजनवादी प्रमाण                      

(D) इनमें से कोई नहीं

Ans. (B)

15. “ईश्वर की सत्यनिष्ठा पर ज्ञान की कसौटी आधारित है।” यह किनका मानना है ?

(A) देकार्त                                          

(B) स्पीनोजा

(C) ह्यूम                                           

(D) इनमें से कोई नहीं

Ans. (A)

16. ‘आत्माश्रय दोष’ पाया जाता है-

(A) ईश्वर के प्रमाण के निमित्त जगत् संबंधी तर्क में

(B) ईश्वर के प्रमाण के निमित्त सत्तावादी तर्क में

(C) ईश्वर के प्रमाण के निमित्त प्रयोजनवादी तर्क में

(D) ईश्वर के प्रमाण के निमित्त कारणतया के तर्क में

Ans. (B)

17. किस तर्क में ईश्वर के अस्तित्व को जगत् के अस्तित्व के आधार पर सिद्ध किया जाता है ?

(A) जगत्-संबंधी तर्क                         

(C) कारणता-संबंधी तर्क

(B) प्रयोजन-मूलक तर्क                     

(D) सत्तावादी तर्क

Ans. (D)

18. ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि के लिए देकार्त ने निम्न में से किस एक सिद्धांत का प्रयोग किया है ?

(A) एक पूर्ण सत्ता समग्र विश्व का कारण होनी चाहिए

(B) एक पूर्ण सत्ता एक पूर्ण सत्ता के प्रत्यय का कारण होनी चाहिए

(C) एक पूर्ण सत्ता आश्रित सत्ताओं का कारण होनी चाहिए

(D) इनमें से कोई नहीं

Ans. (B)

लघु उत्तरीय प्रश्न

1. ईश्वर के अस्तित्व संबंधी प्रमाण कौन-कौन हैं ?

Ans. दर्शनशास्त्र की एक शाखा है-ईश्वर विज्ञान (Theology) जिसमें ईश्वर के सम्बन्ध में विशद् अध्ययन किया जाता है। ईश्वरवाद के समर्थकों ने ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए कई युक्तियों का सहारा लिया है। ये युक्तियाँ हैं-1. कारण मूलक युक्ति, 2. विश्वमूलक युक्ति, 3. प्रयोजनात्मक युक्तिं, 4. सत्तामूलक युक्ति और 5. नैतिक युक्ति। इन युक्तियों या तर्कों के सहारे ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है लेकिन महात्मा बुद्ध ने यह कहकर ईश्वरवादियों के इस विचार पर पानी फेर दिया था कि-“ईश्वर की खोज करना अंधेरे कमरे में उस बिल्ली की खोज करना है, जो बिल्ली उस कमरे में है ही नहीं। “

2. नैतिकता का ईश्वर से क्या सम्बंध है ?

Ans. नैतिक तर्क के अनुसार ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इस प्रकार से विचार किया जाता है। यदि नैतिक मूल्य वस्तुगत है तो यह आवश्यक हो जाता है कि जगत में

नैतिक व्यवस्था हो और यदि जगत में नैतिक व्यवस्था है तब नैतिक नियमों को मानना पड़ेगा। यदि ईश्वर के अस्तित्व को न माना जाए तब जगत की नैतिक व्यवस्था को भी नहीं माना जा सकता है और जगत में नैतिक व्यवस्था के अभाव में नैतिक मूल्यों को भी वस्तुतः नहीं माना जा सकता है किन्तु नैतिक मूल्यों का वस्तुगत न मान कोई भी दार्शनिक मानव को संतुष्ट नहीं कर सकता। इसलिए नैतिक मूल्यों को वस्तुगत मानना ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करना है।

3. देकार्त के दर्शन में ईश्वर क्या है ?

Ans. देकार्त ने ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए दो प्रकार के प्रस्तावों को प्रस्तुत किया हैं- कारण कार्य पर आधारित प्रमाण तथा सत्तामूलक प्रमाण कारण कार्य प्रमाण के अनुसार मानव कार्य है। उसका कार्य भी होगा। मानव में पूर्ण, नित्य, शाश्वत, ईश्वर की भावना है, अतः मानव के अंदर पूर्ण ईश्वर की भावना को अंकित करने वाला भी पूर्ण, नित्य एवं शाश्वत पूर्ण ईश्वर ही हो सकता है। दूसरी ओर सत्तामूलक प्रमाण में देकार्त का मानना है कि ईश्वर प्रत्यय में ही ईश्वर का अस्तित्व निहित है। ईश्वर की भावना है कि वह सब प्रकार से पूर्ण है। ‘पूर्णता’ .से ध्वनित होता है कि उसकी वास्तविकता भी अवश्य होगी। कारण कार्य प्रमाण के संबंध में वह आपत्ति है कि ईश्वर मानव विचारों और जगत् से परे स्वतंत्र सत्यता है जिसमें कारण कार्य की कोटि लागू नहीं होती है। इसी तरह सत्तामूलक प्रमाण के संबंध में कहा जाता है कि भावना से वास्तविकता सिद्ध नहीं होती है।

4. देकार्त की संदेह विधि का वर्णन करें।

Ans. देकार्त का कहना है कि हमलोग सभी वस्तुओं में संदेह कर सकते हैं। परन्तु संदेह करने वाले में हम संदेह नहीं कर सकते। संदेह करना एक क्रिया है और क्रिया बिना कर्त्ता के नहीं हो सकती। चिंतक के अस्तित्व को नहीं मानना भी एक चिंतन है। अंतः चिंतन करने वाला चिंतक नहीं है। यह एक विरोधी बात है। अतः शंकाओं के बीच एक सत्य यह है कि चिंतक की सत्ता है। ‘शंका करनेवाले के रूप में मेरा अस्तित्व है’ यह देकार्त्त का प्रथम आर्य सत्य है।

5. देकार्त का निरपेक्ष और सापेक्ष द्रव्य क्या हैं ?

Ans. देकार्त्त के अनुसार द्रव्य सापेक्ष तथा निरपेक्ष होता है। मन और शरीर परस्पर स्वतंत्र हैं, किन्तु ये दोनों अपने अस्तित्व के लिए ईश्वर पर आश्रित हैं। ये दोनों गौण अर्थ में पदार्थ कहे जाते हैं। आत्मा और भौतिक पदार्थ ईश्वर पर निर्भर हैं, इसलिए उन्हें सापेक्ष कहा जाता है। निरपेक्ष द्रव्य अपने अर्थ को स्पष्ट करने के लिए सापेक्ष द्रव्य की अपेक्षा रखता है। ईश्वर को देकार्त ने निरपेक्ष द्रव्य (Primary or Absolute Substance) और मन तथा शरीर को सापेक्ष द्रव्य (Secondary or Relative Substance) कहा है।

6. देकार्त अपने किस सिद्धान्त के आधार पर दर्शनशास्त्र को ईश्वरवाद और अंधविश्वास के चंगुल से बाहर लाना चाहते हैं ?

Ans. देकार्त अपने यथार्थवादी सिद्धान्त के आधार पर दर्शनशास्त्र को ईश्वरवाद और अंध विश्वास के चंगुल से बाहर लाना चाहते हैं। देकार्त बाह्य संसार के अस्तित्व को ईश्वर के अस्तित्व से सिद्ध करता है अर्थात् देकार्त यथार्थवादी है। संसार सत्य है इसीलिए हम उसका स्पष्ट अनुभव करते हैं और हमारे ये स्पष्ट अनुभव प्राकृतिक है अर्थात् ईश्वर द्वारा उत्पन्न दिखायी देता है क्योंकि संसार की व्याख्या ईश्वर ने की है। वही सृष्टा है, पालक व संहारक भी है।

7. क्या स्पिनोजा का समानान्तरवाद देकार्त के द्वैतवाद का निराकरण करता है ?

Ans. हाँ, स्पीनोजा का समानान्तरवाद देकार्त के द्वैतवाद का निराकरण करता है। देकार्त मन को शरीर से पृथक् मानता है। पाश्चात्य विचारक स्पिनोजा ने मन शरीर संबंध की व्याख्या के लिए सिद्धांत का प्रणयन किया है, उसे समानांतरवाद कहा जाता है। स्पिनोजा की मान्यता है कि मन और शरीर सापेक्ष द्रव्य नहीं है, जैसा की देकार्त ने स्वीकार किया है। चेतन और विस्तार क्रमशः मन और शरीर के गुण हैं तथा ये गुण ईश्वर में निहित रहते हैं। ये दोनों गुण ईश्वर के स्वभाव हैं। ये दोनों विरोधी स्वभाव नहीं है, बल्कि रेल की पटरियों के समान समानांतर स्वभाव हैं। इन दोनों की क्रियाएँ साथ-साथ होती हैं।

8. सत्तामूलक प्रमाण की व्याख्या करें।

Ans. अन्सेल्म, देकार्त तथा लाईबनित्स ने ईश्वर की सत्ता को वास्तविकता प्रमाणित करने के लिए सत्ता सम्बन्धी प्रमाण दिया है। इस प्रमाण में कहा गया है कि हमारे मन में पूर्ण सत्ता की धारणा है, अतः यह धारणा, केवल कोरी कल्पना न होकर अवश्य ही वास्तविक सत्ता के सम्बन्ध में होगी। ईश्वर की यथार्थता ( existence) उस पूर्ण द्रव्य के प्रत्यय से उसी प्रकार टपकती है जिस प्रकार से त्रिभुज का त्रिकोणाकार उसके प्रत्यय से ही ध्वनित होता है। संक्षिप्त रूप में हम कह सकते हैं कि प्रत्ययों के आधार पर ही वास्तविकता सिद्ध की जा सकती है। इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए काण्ट (Kant) का मानना है कि वास्तविकता केवल इन्द्रिय ज्ञान से ही प्राप्त की जा सकती है। प्रत्ययों से वास्तविकता नहीं प्राप्त की जा सकती है। प्रत्यय चाहे साधारण वस्तुओं के विषय में हो या पूर्ण द्रव्य के विषय में, वे वास्तविकता प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यदि मात्र प्रत्ययों की रचना से ही वास्तविकता प्राप्त हो जाती है तो कोई भूखा नंगा और दरिद्र न होता।

9. विश्वमूलक प्रमाण की व्याख्या करें।

Ans. विश्व का निर्माण प्रकृति या सृष्टि ने किया है। प्रकृति जड़ है अकेली है किन्तु सक्षम है विश्व का निर्माण करने के लिए। यह विश्वमूलक प्रमाण है।

10. सत्ता या तत्त्व सम्बन्धी प्रमाण की संक्षेप में व्याख्या करें।

Ans. अन्सेल्म, देकार्त तथा लाईबनित्स ने ईश्वर की सत्ता को वास्तविकता प्रमाणित करने के लिए सत्ता सम्बन्धी प्रमाण दिया है। इस प्रमाण में कहा गया है कि हमारे मन में पूर्ण सत्ता की धारणा है, अतः यह धारणा केवल कोरी कल्पना न होकर अवश्य ही वास्तविक सत्ता के सम्बन्ध में होगी। ईश्वर की यथार्थता ( existence) उस पूर्ण द्रव्य के प्रत्यय से उसी प्रकार टपकती है जिस प्रकार से त्रिभुज का त्रिकोणाकार उसके प्रत्यय से ही ध्वनित होता है। संक्षिप्त रूप में हम कह सकते हैं कि प्रत्ययों के आधार पर ही वास्तविकता सिद्ध की जा सकती है। इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए काण्ट (Kant) का मानना है कि वास्तविकता केवल इन्द्रिय ज्ञान से ही प्राप्त की जा सकती है। प्रत्ययों से वास्तविकता नहीं प्राप्त की जा सकती है। प्रत्यय चाहे साधारण वस्तुओं के विषय में हो या पूर्ण द्रव्य के विषय में, वे वास्तविकता प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यदि मात्र प्रत्ययों की रचना से ही वास्तविकता प्राप्त हो जाती है तो कोई भूखा नंगा और दरिद्र न होता ।

11. विश्व सम्बन्धी प्रमाण की आलोचना काण्ट ने कैसे की ?

Ans. काण्ट के अनुसार वैश्विक प्रमाण को आनुभविक नहीं समझना चाहिए, क्योंकि आपातकाल वस्तुओं को कोई इन्द्रियानुभविक लक्षण नहीं है। यह अनुभव वस्तुओं का अतिसामान्य अमूर्त लक्षण है जिसे अनुभवाश्रित मुश्किल से कहा जा सकता है। वैश्विक प्रमाण का मुख्य उद्देश्य यही है कि यह अनिवार्य सत्ता के प्रत्यय (Idea ) को स्थापित करे तथा इस अनिवार्य सत्ता से ईश्वर की वास्तविकता सिद्ध करे। ऐसा करने पर यह सत्तामूलक प्रमाण का रूप धारण कर लेता है। जिस प्रकार पूर्ण (Perfect) ईश्वर की भावना से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है। इस तरह यहाँ अनिवार्य सत्ता की भावना से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है, उसी तरह यहाँ अनिवार्य सत्ता की भावना से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है। इस प्रकार वैश्विक प्रमाण वस्तुतः • सत्तामूलक प्रमाण का ही छुपा रूप है, अतः यह सिद्धान्त भी ईश्वर के अस्तित्व को नहीं सिद्ध कर पाता है।

12. उद्देश्य मूलक प्रमाण की संक्षेप में व्याख्या करें।

Ans. उद्देश्य मूलक प्रमाण के अनुसार जहाँ तक मानव का अनुभव प्राप्त होता है, वहाँ तक सम्पूर्ण विश्व में क्रम व्यवस्था, साधन – साध्य की सम्बद्धता दिखाई देती है। अतः प्राकृतिक समरूपता व्यवस्था, सौन्दर्य आदि से स्पष्ट होता है कि कोई परम सत्ता है, जिसने इस विश्व की रचना अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए की है। काण्ट ने इस प्रमाण को भी उपयुक्त नहीं माना। अनुसार उद्देश्य मूलक प्रमाण से इतना ही सिद्ध हो पाता है कि विश्व का कोई शिल्पकार (architect) है, न कि इस विश्व का कोई सृष्टिकर्त्ता । सृष्टिकर्त्ता वह है जो विश्व के उपादान और उसके रूप दोनों का रचयिता हो । वस्तुतः उद्देश्य मूलक प्रमाण से अपरिमित, निरपेक्ष, परम सत्ता का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है। काण्ट की दृष्टि में सभी प्रमाण अन्त में सत्तामूलक प्रमाण के ही विभिन्न चरण हैं।

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