वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1.दिल्ली किस नदी के किनारे स्थित है ?
(A) सोन
(B) यमुना
(C) गोमती
(D) गंगा
Ans. (B)
2. लिंगायत आंदोलन का प्रादुर्भाव कहाँ हुआ ?
(A) तमिलनाडु
(B) कर्नाटक
(C) उड़ीसा
(D) कश्मीर
Ans. (B)
3. बारहवीं शताब्दी तक आते-आते जगन्नाथ की पूजा किस देवता के रूप में की जाने लगी ?
(A) शिव के
(B) राम के
(C) विष्णु के
(D) गणेश के
Ans. (C)
4. दक्षिण भारत में अलवार संतों ने अपना आराध्य देव किसे माना ?
(A) विष्णु को
(B) शिव को
(C) राम को
(D)गणेश को
Ans. (A)
5. दक्षिण भारत के नयनार संतों ने अपना आराध्य देव किसे माना ?
(A) राम को
(B) विष्णु को
(C) शिव को
(D) इनमें कोई नहीं
Ans. (C)
6. किस शताब्दी के आसपास इस्लामी दुनिया में सूफी सिलसिलों का गठन होने लगा ?
(A) ग्यारहवीं
(B) बारहवीं
(C) तेरहवीं
(D) चौदहवीं
Ans. (B)
7. मीराबाई ने किसे अपना एकमात्र पति स्वीकार किया ?
(A) मेवाड़ के सिसोदिया कुल के राजकुमार को
(B) शिव को
(C) विष्णु के अवतार कृष्ण को
(D) इनमें कोई नहीं
Ans. (C)
8. ख्वाजा मुइनुद्दीन की दरगाह पर आनेवाला पहला सुल्तान कौन था ?
(A) गियासुद्दीन खिलजी
(B) मुहम्मद बिन तुगलक
(C) अलाउद्दीन खिलजी
(D) इनमें कोई नहीं
Ans. (B)
9. अकबर अजमेर की दरगाह (ख्वाजा मुइनुद्दीन) पर कितनी बार आया
(A) 10 बार
(B) 12 बार
(C) 14 बार
(D) 15 बार
Ans. (C)
10. सिख धर्म के प्रथम गुरु कौन थे ?
(A) तेग बहादुर
(B) गुरु नानक
(C) गुरु गोविन्द सिंह
(D) इनमें कोई नहीं
Ans. (B)
11. खालसा पंथ का गठन किसने किया ?
(A) गुरु नानक
(B) गुरु तेग बहादुर
(C) गुरु गोविंद सिंह
(D) गुरु अर्जुन देव
Ans. (C)
12. ‘आदि ग्रंथ साहिब’ का संकलन किसने किया ?
(A) गुरु अर्जुन देव
(B) गुरु नानक
(C) गुरु गोविन्द सिंह
(D) गुरु तेग बहादुर
Ans. (A)
13. सिख धर्म के दसवें गुरु कौन थे ?
(A) गुरु नानक
(B) गुरु गोविन्द सिंह
(C) गुरु तेग बहादुर
(D) गुरु अर्जुन देव
Ans. (B)
14. रामानन्द के शिष्य कौन थे ?
(A) रैदास
(B) कबीर
(C) धन्ना एवं पीपा
(D) इनमें से सभी
Ans. (D)
15. तलवण्डी किसका जन्म स्थान है ?
(A) कबीर
(B) नानक
(C) रैदास
(D) मीरा
Ans. (B)
16. संत कबीर का जन्म कहाँ हुआ था ?
(A) दिल्ली
(B) वाराणसी
(C) मथुरा
(D) हैदराबाद
Ans. (B)
17. शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह स्थित है :
(A) दिल्ली में
(B) आगरा में
(C) फतेहपुर सिकरी में
(D) अजमेर में
Ans. (D)
18. गुरुनानक का संबंध किस धर्म से है ?
(A) सिख
(B) इस्लाम
(C) बहाई
(D) यहूदी
Ans. (A)
19. निम्नलिखित में महिला संत थी-
(A) मीरा
(B) अंडाल
(C) कराइकल
(D) इनमें से सभी
Ans. (D)
20. तमिल क्षेत्र से संबंधित मणिक्वचक्कार की दो विशेषताएँ थीं-
(A) कांस्य मूर्तिकार, शैव अनुयायी भक्तिगीत गायक
(B) शैव अनुयायी तथा तमिल में भक्तिगीत के रचनाकार
(C) तमिल भक्ति गान तथा नृत्यकार
(D) उपर्युक्त तीनों में प्रथम ठीक है
Ans. (B)
21. जगन्नाथ का शाब्दिक अर्थ है-
(A) संपूर्ण विश्व का स्वामी
(B) विष्णु एवं शिव का अवतार
(C) सभी का हितैषी
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (A)
22. मारिची थी
(A) बौद्ध देवी
(B) जैन देवी
(C) हिंदू देवी
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (A)
23. आठवीं से अठारहवीं शताब्दी तक वैदिक देवकुल के जो तीन देवता पूरी तरह गौण हो गये, वे थे-
(A) वरूण, वायु तथा इन्द्र
(B) अग्नि, इन्द्र तथा सोम
(C) ऊषा, सूर्य तथा अदिति
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (B)
24. सलीम चिश्ती की दरगाह कहाँ अवस्थित है ?
(A) आगरा
(B) अजमेर
(C) विजयनगर
(D) दिल्ली
Ans. (A)
25. नलपिरादिव्य प्रबंधन का वर्णन किया जाता है-
(A) संगम साहित्य के रूप में
(B) तमिल वेद के रूप में
(C) संस्कृत वेद के रूप में
(D) मलयालम साहित्यिक कृति के रूप में
Ans. (B)
26. अंडाल का सही परिचय है-
(A) वह अलवार स्त्री थी
(B) वह नयनार स्त्री थी
(C) वह अलवार पुरुष था
(D) वह नयनार पुरुष था
Ans. (A)
27. दसवीं शताब्दी तक जितने अलवार संतों की रचनाओं का संकलन किया गया था, उनकी संख्या थी—
(A) बारह
(B) पाँच
(C) अठारह
(D) छत्तीस
Ans. (A)
28. दक्कन में चोल शक्तिशाली बने रहे-
(A) दूसरे से आठवीं शताब्दी
(B) नौंवी से तेरहवीं शताब्दी
(C) पन्द्रहवीं से सत्रहवीं शताब्दी
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (B)
29. बास वन्ना नये आंदोलन के चालक थे-
(A) ब्राह्मण
(B) क्षत्रिय
(C) शूद्र
(D) वैश्व
Ans. (A)
30. तेरहवीं शताब्दी में एक नवीन तत्व के रूप में जो इस्लाम धर्मावलम्बी बड़ी संख्या में आये, वे थे-
(A) मुगल
(B) तुर्क
(C) सूफी
(D) अफगान
Ans. (B)
31. प्रथम सहस्त्राब्दी में जो व्यापारी समुद्र के रास्ते पश्चिमी भारत में आये, वे थे-
(A) पुर्तगाली
(B) अरब
(C) अंग्रेज
(D) फ्रांसीसी
Ans. (B)
32. इस्लाम का जिस शताब्दी से उदय हुआ, वह थी—
(A) सातवीं
(B) तेरहवीं
(C) प्रथम
(D) दसवीं
Ans. (A)
33. ‘बीजक’ में किसके उपदेश संग्रहित हैं ?
(A) कबीर
(B) गुरुनानक
(C) चैतन्य
(D) रामानन्द
Ans. (A)
34. निजामुद्दीन औलिया किस सुफी सिलसिले से संबंधित है ?
(A) चिश्ती
(B) सुहारवादी
(C) कादिरी
(D) इनमें से कोई नहीं
Ans. (A)
35. कबीर शिष्य थे-
(A) रामानुज के
(B) नानक के
(C) रामानन्द के
(D) शंकराचार्य के
Ans. (C)
36. कराइकल अम्मइयार नामक महिला किसकी भक्त थीं ?
(A) शिव
(B) विष्णु
(C) राम
(D) कृष्ण
Ans. (A)
37. विष्णु को अपना पति कौन मानती थीं ?
(A) मीरा
(B) अंडाल
(C) कराइकल
(D) इनमें से सभी
Ans. (B)
38. शाहजहाँ की किस पुत्री ने ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती साहब की अजमेर स्थित दरगाह का वर्णन किया है ?
(A) जहाँआरा
(B) रोशनआरा
(C) गौहर आराँ
(D) इनमें से सभी ने
Ans. (A)
39. पुष्टिमार्ग का जहाज किसे कहा जाता था ?
(A) कबीर
(B) बल्लभाचार्य
(C) नानक
(D) रैदास
Ans. (B)
40. महाराष्ट्र के संत कौन थे ?
(A) तुकाराम
(C) ज्ञानेश्वर
(B) रामदास
(D) इनमें से सभी
Ans. (D)
41. निम्न में से महिला रहस्यवादी संत थीं-
(A) अंडाल
(B) कराइकल
(C) रबिया
(D) मीराबाई
Ans. (C)
42. बलवन की पुत्री का विवाह किस सूफी संत के साथ हुआ था ?
(A) निजामुद्दीन औलिया
(B) फरीदउद्दीन गंज ए शकर
(C) कुतुबुद्दीन बख्तयार काकी
(D) मुइनुद्दीन चिश्मी
Ans. (B)
43. राजकुमार दारा का संबंध किस सिलसिले से था ?
(A) चिश्ती
(B) सुहारवर्दी
(C) कादिरी
(D) इनमें से सभी से
Ans. (C)
44. ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती साहब की अजमेर स्थित सर्वप्रथम दरगाह पर कौन-सा सुल्तान गया ?
(A) बलबन
(B) मुहम्मद-बिन-तुगलक
(C) अलाउद्दीन खिलजी
(D) अकबर
Ans. (B)
45. सूफी मत की फिरदौसी शाखा निम्न में से कहाँ सबसे अधिक पनपी
(A) बंगाल
(B) उड़ीसा
(C) दिल्ली
(D) बिहार
Ans. (D)
46. उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन का आरंभ किस संत ने किया ?
(A) कबीर
(B) नानक
(C) रामानंद
(D) चैतन्य महाप्रभु
Ans. (C)
47. शंकराचार्य का मत है-
(A) द्वैतवाद
(B) अद्वैतवाद
(C) भेदाभेदवाद
(D) द्वेताद्वैतवाद
Ans. (B)
48. बल्लभाचार्य का जन्म हुआ—
(A) आगरा
(B) बैंगलोर
(C) वाराणसी
(D) श्रीरंगपटनम
Ans. (C)
49. शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी का संबंध किस सूफी सम्प्रदाय से है
(A) चिश्ती
(B) सुहरावर्दी
(C) कादिरीं
(D) नक्सवरी
Ans. (A)
50. निजामुद्दीन औलिया की दरगाह कहाँ है ?
(A) दिल्ली
(B) आगरा
(C) अजमेर
(D) फतेहपुर सीकरी
Ans. (A)
51. काशी में किस प्रसिद्ध संत का जन्म हुआ ?
(A) मीरा
(B) कबीर
(C) गुरुनानक
(D) बल्लभाचार्य
Ans. (B)
52. औरंगजेब का संबंध किस सूफी सिलसिले से था ?
(A) चिश्ती
(B) सुहरावर्दी
(C) कादिरी
(D) नक्शबन्द
Ans. (D)
53. ‘सुल्तान उल हिन्द’ किसे कहा गया ?
(A) ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती
(B) फरीदउद्दीन गंज-ए-शकर
(C) निजामुद्दीन औलिया
(D) शेख सलीम चिश्ती
Ans. (A)
54. बंगाल के प्रसिद्ध संत कौन थे ?
(A) चैतन्य महाप्रभु
(B) गुरुनानक
(C) कबीर
(D) बाबा फरीद
Ans. (A)
55. किस भक्ति संत ने अपने संदेश के प्रचार के लिए सबसे पहले हिन्दी का प्रयोग किया ?
(A) दादू
(B) कबीर
(C) रामानन्द
(D) तुलसीदास
Ans. (C)
56. ‘ढाई दिन का झोपड़ा’ का निर्माण किसने करवाया था ?
(A) निकोली कांटी
(B) अब्दुर्रज्जाक
(C) ऐबक
(D) बलबन
Ans. (C)
57. कुतुबमीनार का निर्माण किसने शुरू किया ?
(A) इल्तुतमिश
(B) जलालुद्दीन खिलजी
(C) कुतुबुद्दीन ऐबक
(D) रजिया
Ans. (C)
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. अमीर खुसरो कौन था ? उनके नाम के साथ कौल शब्द कैसे जुड़ा है ?
Ans. अमीर खुसरो (1253-1323) महान कवि, संगीतज्ञ तथा खेश निजामुद्दीन औलिया के अनुयायी थे। उन्होंने कौल (अरबी शब्द जिसका अर्थ है कहावत) का प्रचलन करके चिश्ती समा को एक विशिष्ट आकार दिया। कौल को कव्वाली के शुरू और आखिर में गाया जाता था। इसके बाद सूफी कविता का पाठ होता था जो फारसी, हिन्दवी अथवा उर्दू में होती थी और कभी-कभी इन तीनों ही भाषाओं के शब्द इसमें मौजूद होते थे। शेख निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर गाने वाले कव्वाल अपने गायन की शुरुआत कौल से करते हैं। उपमहाद्वीप की सभी दरगाहों पर कव्वाली गाई जाती है।
2. ‘भक्ति और सूफी आन्दोलन एक-दूसरे के पूरक थे।’ व्याख्या कीजिए ।
Ans. भारत में मध्यकाल में एक नवीन धार्मिक आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। हिन्दुओं के आन्दोलन को भक्ति आन्दोलन तथा मुसलमानों के आन्दोलन को सूफी आन्दोलन कहते हैं। ये दोनों ही आन्दोलन आम जनता पर अपना प्रभाव छोड़ने में सफल हुए। हालांकि रीति-रिवाजों में ये एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न थे किन्तु वृहद् दृष्टि से ये एक-दूसरे के पूरक भी थे। दो समुदायों में एक साथ आन्दोलन शुरू होना ही इस तथ्य की पुष्टि करता है कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।
भक्ति एवं सूफी आन्दोलन के प्रभाव –
(i) इन आन्दोलनों के सन्तों ने धर्म की जटिलताओं को दूर करके उसे सभी के लिए सरल एवं सुलभ बना दिया।
(ii) भक्ति तथा सूफी दोनों ही आन्दोलनों ने स्थापित धार्मिक व्यवस्था पर कड़ा प्रहार किया था।
(iii) दोनों ही आन्दोलनों में गरीब लाचार एवं बेबस लोगों की ओर विशेष ध्यान दिया गया था।
(iv) सन्तों एवं सूफियों की वाणी घर-घर तक पहुँच गई।
(v) सन्तों का जीवन अत्यन्त सादा तथा आदर्शों से भरा हुआ था।
(vi) नृत्य एवं संगीत ईश्वर से प्रेम करने का साधन बना।
(vii) इस आन्दोलन ने जाति प्रथा जैसी सामाजिक व्यवस्था को कमजोर कर दिया।
3. सूफीवाद से आप क्या समझते हैं ?
Ans. सूफीवाद उन्नीसवीं शताब्दी में मुद्रित एक अंग्रेजी शब्द है। सूफीवाद के लिए इस्लामी ग्रंथों में जिस शब्द का इस्तेमाल होता है वह है तसत्चुफ। कुछ विद्वानों के अनुसार यह शब्द ‘सूफ’ से निकला है जिसका अर्थ ऊन है। यह उस खुरदुरे ऊनी कपड़े की ओर इशारा करता है जिसे सूफी पहनते थे। अन्य विद्वान इस शब्द की व्युत्पत्ति ‘सफा’ से मानते हैं जिसका अर्थ है साफ। यह भी संभव है कि यह शब्द ‘सफा’ से निकला हो जो पैगम्बर की मस्जिद के बाहर एक चबूतरा था जहाँ निकट अनुयायियों की मंडली धर्म के बारे में जानने के लिए इकट्ठी होती थी ।
4. सूफी सन्त के प्रमुख सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए। इनका जन-जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा ?
Ans.
1.एकेश्वरवाद (Mono God)- सूफी लोग इस्लाम धर्म को मानने के साथ एकेश्वरवाद पर जोर देते थे। पीरों और पैगम्बरों के उपदेशों को वे मानते थे।
2. रहस्यवाद (Mistensue) – इनकी विचारधारा रहस्यवादी है। इनके अनुसार कुरान के छिपे रहस्य को महत्त्व दिया जाता है। सूफी सारे विश्व के कण-कण में अल्लाह को देखते हैं।
3. प्रेम साधना पर जोर (Stress on Love and Meditation ) – सच्चे प्रेम से मनुष्य अल्लाह के समीप पहुँच सकता है। प्रेम के आगे नमाज, रोजे आदि का कोई महत्त्व नहीं ।
4. भक्ति संगीत (Bhakti Music)- वे ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए गायन को विशेष महत्त्व देते थे। मूर्त्ति पूजा के वे विरोधी थे।
5. गुरु या पीर का महत्व (Importance of Pir or Teacher ) – गुरु या पीर को सूफी लोग अधिक महत्त्व देते थे। उनके उपदेशों का वे पालन करते थे।
6. इस्लाम विरोधी कुछ सिद्धान्त (Some Principles Against Islam) – वे इस्लाम विरोधी कुछ बातें-संगीत, नृत्य आदि को मानते थे। वे रोजे रखने और नमाज पढ़ने में विश्वास नहीं रखते थे।
5. चिश्ती सम्प्रदाय के तीन प्रमुख संतों का संक्षिप्त परिचय दें।
Ans. भारत वर्ष में चिश्ती सम्प्रदाय का प्रवर्तक ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती को माना जाता है। ये 1192 ई० में भारत में आये।
चिश्ती सम्प्रदाय के तीन प्रमुख संतों का परिचय :
(i) शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी यह मुइनुद्दीन चिश्ती के प्रमुख शिष्य थे। ये इल्तुतमिश के समय भारत आये। इनका जन्म 1235 ई० में फरगना के गौस नामक स्थान पर हुआ था। बख्तियार (भाग्य-बन्धु) नाम मुइनुद्दीन का दिया हुआ था।
(ii) फरीदउद्दीन – गंज-ए-शकर इनका जन्म मुल्तान जिले के कठवाल शहर में 1175 ई० हुआ था। ये बाबा फरीद के नाम से प्रसिद्ध थे। तीन पत्नियों में से एक, प्रथम पत्नी बलवन की पुत्री थी जिसका नाम हुजैरा था।
(iii) शेख निजामुद्दीन औलिया इनका वास्तविक नाम मुहम्मद-बिन-दनियल-अल बुखारी था। इनका जन्म बदायूँ में 1236 ई० में हुआ था। इन्होंने अपने जीवनकाल में दिल्ली के सात सुल्तानों का राज्य देखा था । अमीर खुसरो इन्हीं के शिष्य थे। दुर्भाग्यवश इनका सम्बन्ध किसी भी सुल्तान के साथ मधुर नहीं रहा। इनकी मृत्यु 1325 ई० में हुई।
6. गुरु नानक कौन थे ? उनके व्यक्तित्व के बारे में किसी एक इतिहासकार का कथन लिखिए।
Ans. पंजाब में भक्ति आन्दोलन का ज्वार लाने का श्रेय गुरु नानक जी को है। वे जाति-पाति, धर्म, वर्ग और मूर्ति पूजा के विरोधी थे। उन्होंने निष्काम भक्ति, शुभ कर्म तथा शुद्ध जीवन को ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बतलाया। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के समर्थक थे। “उनका स्वाभाविक मिठास और सबसे प्रेम करने की भावना के कारण हिन्दू और मुसलमान दोनों उनका आदर करते थे। इसी कारण से वह दोनों धर्मों को एक-दूसरे के समीप लाने का केन्द्र बन गए।”
7. रामानुज और रामानंद पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
Ans :-
1.रामानुज (Ramanuja) – शंकराचार्य के बाद प्रसिद्ध भक्त सन्त रामानुज हुए। उन्हें प्रथम वैष्णव आचार्य माना जाता है। उनका कार्य काल बारहवीं शताब्दी था। उन्होंने सगुण की भक्ति पर जोर दिया तथा कहा कि उसकी सच्ची भक्ति, ज्ञान तथा कर्म ही मोक्ष प्राप्ति का साधन है।
2. रामानन्द (Ramanand)- आचार्य रामानुज की पीढ़ी में स्वामी रामानन्द प्रथम सन्त थे जिन्होंने भक्ति द्वारा जनसाधारण को नया मार्ग दिखाया। उनका समय चौदहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और पंद्रहवीं शताब्दी के प्रथम पच्चीस वर्ष माने जाते हैं। उनका जन्म प्रयाग (इलाहाबाद) में 1299 ई. में कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने एकेश्वरवाद पर जोर देकर हिन्दू मुसलमानों में प्रेम भक्ति सम्बन्ध के साथ सामाजिक समाधान प्रस्तुत किया। उससे भी अधिक उन्होंने हिन्दू समाज के चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) को भक्ति का उपदेश दिया और निम्न वर्ण के लोगों के साथ खान-पान निषेध का घोर विरोध किया। उनके शिष्यों में सभी जातियों के लोग थे। इनमें शूद्र भी थे। इनके शिष्यों में रविदास चर्मकार थे। कबीर जुलाहे थे, सेनापति नाई, पीपा राजपूत थे और सन्तधना कसाई थे। उन्होंने ब्राह्मणों और क्षत्रियों की उच्चता का खण्डन किया और मानववाद तथा मानवीय समानता जैसे प्रगतिशील विचारों एवं सिद्धान्तों का प्रचार किया उन्होंने अपने उपदेशों का प्रचार क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से किया।
8. कबीर पर एक टिप्पणी लिखिए।
Ans. मध्ययुगीन भारतीय संतों में कबीरदास की साहित्यिक एवं ऐतिहासिक देन स्मरणीय है। वे मात्र भक्त ही नहीं, बड़े समाज सुधारक भी थे। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों का डटकर विरोध किया। अंधविश्वासों, दकियानूसी, अमानवीय मान्यताओं तथा गली सड़ी रूढ़ियों की कटु आलोचना की। उन्होंने समाज, धर्म तथा दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण विचारधारा को प्रोत्साहित भी किया। कबीर ने जहाँ एक ओर बौद्धों, सिद्धों और नाथों की साधना पद्धति तथा सुधार परम्परा के साथ वैष्णव सम्प्रदायों की भक्ति भावना को ग्रहण किया वहाँ दूसरी ओर राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक असमानता के विरुद्ध प्रतिक्रिया भी व्यक्त की। इस प्रकार मध्यकाल में कबीर ने प्रगतिशील तथा क्रांतिकारी विचारधारा को स्थापित किया। कबीर एकेश्वरवाद के समर्थक थे। वे मानसिक पवित्रता, अच्छे कर्मों तथा चरित्र की शुद्धता पर बल देते थे। उन्होंने जाति, धर्म या वर्ग को प्रधानता नहीं दी। उन्होंने धार्मिक कुरीतियों, आडम्बरों, अंधविश्वासों तथा कर्मकाण्डों को व्यर्थ बतलाया। उन्होंने मूर्ति पूजा का खंडन करने के उद्देश्य से लिखा था-
“पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजू पहार
ताते तो चाकी भली पीस खाय संसार ॥”
सारांश यह है कि कबीर धार्मिक क्षेत्र में सच्ची भक्ति का संदेश लेकर प्रकट हुए थे। उन्होंने निर्गुण-निराकार भक्ति का मार्ग अपनाकर मानव धर्म के सम्मुख भक्ति का मौलिक रूप रखा। यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि “कबीर के राम दशरथ पुत्र राजा राम नहीं है अपति घट-घट में निवास करने वाली अलौकिक शक्ति हैं जिसे राम-रहीम, कृष्ण, खुदा वाहेगुरु साईंनाथ कोई भी नाम दिया जाए। उसका रूप एक है। उसकी प्राप्ति के लिए न मंदिर की आवश्यकता है न मस्जिद की। वह सब में विद्यमान हैं और सभी उसे भक्ति तथा गुरु की कृपा से प्राप्त कर सकते हैं।” कबीर जनसाधारण की भाषा में अपने उपदेश देते थे। उन्होंने अपने दोहों में धार्मिक कुरीतियों, आडम्बरों, अन्धविश्वासों तथा कर्मकाण्डों को व्यर्थ बतलाया।
“कबीर का नाम भारतीय इतिहास में इस कारण लिया जाता है कि उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के आपसी अंतर को दूर करने और एक मनुष्य के दूसरे से अंतर को दूर करने का प्रयास किया।
9. सन्त नामदेव पर टिप्पणी लिखिए।
Ans. नामदेव (Namdev)- (i) मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के विकास एवं लोकप्रियता में महाराष्ट्र के सन्तों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ज्ञानेश्वर, हेमाद्रि और चक्रधर से आरम्भ होकर रामनाथ,
तुकाराम, नामदेव ने भक्ति पर बल दिया तथा एक ईश्वर की सम्पूर्ण मानव जाति सन्तान होने के नावे सबकी समानता के सिद्धान्त को प्रतिष्ठित किया।
(ii) नामदेव ने भरपूर कोशिश के साथ जाति प्रथा का खण्डन किया। नामदेव जाति से दर्जी थे। वे अपने पैतृक व्यवसाय की ओर कभी भी आकृष्ट नहीं हुए तथा साथ संगत को ही उन्होंने चाहा
(iii) सन्त विमोवा खेचम उनके गुरु थे तथा वे सन्त ज्ञानेश्वर के प्रति गहरी निष्ठा रखते उन्होंने भक्त सन्त प्रचारक बनने के बाद अपने शिष्यों के चुनाव में विशाल हृदय से काम लिया।
(iv) उनका काव्य जो मराठी भाषा में है, ईश्वर के प्रति गहरे प्रेम और भक्ति को व्यक्त करता है। उनके अनुसार ईश्वर सर्वव्यापी एकेश्वर तथा सर्वत्र हैं वे समाज सुधारक तथा हिन्दू मुस्लिम एकता के कट्टर समर्थक थे। उन्होंने भरपूर कोशिश के जाति प्रथा का खण्डन किया।
(v) कहा जाता है कि उन्होंने दूर-दूर तक मात्राएँ की और दिल्ली में सूफी सन्तों के साथ विचार-विमर्श किया। ये प्रार्थना, भ्रमण, तीर्थयात्रा सत्संग तथा गुरु की सेवा के समर्थक थे। उन्होंने आध्यात्मिक क्षेत्र में आचरण की शुद्धता, भक्ति की पवित्रता एवं सरसता और चरित्र की निर्मलता पर बल दिया।
10. मीराबाई पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
Ans. गिरिधर गोपाल की भक्त मीराबाई का मध्यकालीन संतों में विशेष स्थान है। उसने भक्ति मंदाकिनी (गंगा) अपने हृदय से निकाली कविताओं द्वारा प्रवाहित की, उसने केवल राजस्थान की मरुभूमि ही नहीं, अपितु सारे उत्तरी भारत को रसमग्न कर दिया।
मीराबाई का जन्म लगभग 1516 ई में राजस्थान के मेला परगने के कुंड़की या चौकड़ी गाँव में हुआ था मौरा जोधपुर के शासक रतनसिंह राठौर की पुत्री थी। मीरा अभी 4-5 वर्ष की ही थी कि उसकी माता का देहांत हो गया। उसका पालन-पोषण उसके दादा ने किया। अपने दादा के धार्मिक विचारों से मीरा बहुत प्रभावित हुई।
18 वर्ष की आयु में मीरा का विवाह मेवाद के महाराणा संग्राम सिंह के बड़े पुत्र भोजराज से कर दिया गया लेकिन मीरा का वैवाहिक जीवन बहुत संक्षिप्त था। विवाह के लगभग एक वर्ष बाद ही उसके पति की मृत्यु हो गई। इस तरह मीरा छोटी आयु में ही विधवा हो गई। कुछ समय बाद उसके ससुर राणा साँगा की भी मृत्यु हो गई। अब भीरा बेसहारा हो गई। अतः वह संसार से मोह त्यागकर कृष्ण भक्ति में लीन हो गई। वह साधुओं का सत्कार करती और पैरों में घुंघरू बाँधकर भगवान कृष्ण की मूर्ति के सामने नाचने लगती।
उसके ससुराल के लोगों ने उसके कार्यों को अपने कुल की मर्यादा के विपरीत समझा। अतः उसे कई प्रकार के अत्याचारों द्वारा मारने के प्रयास किए। लेकिन जहर का प्याला, साँप और सूली आदि भी मीरा का बाल बाँका न कर सके। इस विषय में मीरा ने स्वयं कहा है कि “मीरा मारी न माँ, मेरो राखणहार और इससे उसकी भक्ति भावना और बढ़ गई, लेकिन अत्याचार भी बढ़ते वा रहे थे। कहा जाता है कि मीरा ने अपने ससुराल वालों से तंग आकर गोस्वामी तुलसीदासजी को पत्र लिखकर उनकी सलाह माँगी तुलसीदासजी ने मीरा को इस प्रकार उत्तर दिया।
“जाके प्रिय न राम वैदेही।
तजिये ताहि कोटि वैरी सम, यद्यपि परम सनेही।”
इस उत्तर को पाकर मीरा ने घर बार छोड़ दिया और वह वृंदावन चली गई। वहाँ कुछ समय रहने के बाद मीरा द्वारिका चली गई। कहा जाता है कि मीरा को द्वारिका से लाने के लिए उनकी ससुराल तथा मायके दोनों स्थानों से ब्राह्मण आये लेकिन वह नहीं गई। द्वारिका में ही 1574 ई में मीराबाई का देहांत हो गया।
11. खालसा पंथ की स्थापना किसने और कब की ?
Ans. खालसा पंथ की स्थापना सिक्खों के दसवें गुरु गोविन्द सिंहजी ने 1699 ई में वैशाखी के दिन की।
12. सगुण एवं निर्गुण भक्ति में क्या अंतर है ?
Ans. सगुण एवं निर्गुण भक्ति में निम्नलिखित अंतर है-
(i) सगुण भक्ति- इस परम्परा में देवी-देवताओं की भक्ति एवं आराधना की जाती थी। मूर्ति पूजा पर बल दिया गया। इस परम्परा में दो मार्ग कृष्णभक्ति मार्ग एवं रामभक्ति मार्ग थे।
(ii) निर्गुण भक्ति- निर्गुण भक्ति परम्परा में अमूर्त, निराकार ईश्वर की उपासना की जाती थी। कबीर ने निर्गुण परम्परा को अपनाया।
13. उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए कि संप्रदाय के समन्वय से इतिहासकार क्या अर्थ निकालते हैं?
उत्तरः विभिन्न संप्रदाय-धार्मिक विश्वासों एवं आचरणों का समन्वय लगभग 8वीं-18वीं शताब्दी के काल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। संप्रदाय के समन्वय से इतिहासकारों का तात्पर्य है कि इस काल में विभिन्न पूजा-प्रणालियाँ समन्वय की ओर बढ़ने लगी थीं। इस काल के साहित्य एवं मूर्तिकला दोनों से ही अनेक प्रकार के देवी-देवताओं का परिचय मिलता है। विष्णु, शिव और देवी की विभिन्न रूपों मैं आराधना की परिपाटी न केवल प्रचलन में रही अपितु उसे और अधिक विस्तार एवं व्यापकता भी प्राप्त हुई। देश के विभिन्न भागों के स्थानीय देवताओं को विष्णु का रूप माना जाने लगा । “महान” संस्कृत पौराणिक परम्पराओं एवं “लघु” परम्पराओं के पारस्परिक सम्पर्क के परिणामस्वरूप सम्पूर्ण देश में अनेक धार्मिक विचारधाराओं तथा पद्धतियों का जन्म हुआ।
विद्वान इतिहासकारों का विचार है कि विचाराधीन काल में पूजा-प्रणालियाँ के समन्वय के आधार में प्रमुख रूप से दो प्रक्रियाएँ कार्यशील थीं। इनमें से एक प्रक्रिया ब्राह्मणीय विचारधारा के प्रचार से संबंधित थी। पौराणिक ग्रंथों की रचना, संकलन तथा परिरक्षण ने इसके प्रसार को प्रोत्साहित किया था। पौराणिक ग्रंथों की रचना सरल संस्कृत छन्दों में की गई थी, जिन्हें वैदिक विद्या से विहीन स्त्रियाँ और शूद्र भी समझ सकते थे। दूसरी प्रक्रिया का संबंध स्त्रियों, शूद्रों तथा अन्य सामाजिक वर्गों की आस्थाओं एवं आचरणों को ब्राह्मण द्वारा स्वीकृत किए जाने तथा उन्हें एक नवीन रूप प्रदान किए जाने से था। समन्वय की इस प्रक्रिया का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उदाहरण आधुनिक उड़ीसा राज्य में स्थित ‘पुरी’ में मिलता है।
बारहवीं शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते यहाँ के प्रमुख देवता जगन्नाथ (इसका शाब्दिक अर्थ है-संपूर्ण विश्व का स्वामी) को विष्णु का एक रूप मान लिया गया था। यह और बात है कि विष्णु के उड़ीसा में प्रचलित रूप तथा देश के अन्य भागों से मिलने वाले स्वरूपों में अनेक भिन्नताएँ देखने को मिलती हैं। देवी संप्रदायों में भी समन्वय के ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध होते हैं। सामान्य रूप से देवी की पूजा- आराधना सिंदूर से पोते गए पत्थर रूप में ही किए जाने का प्रचलन था। पौराणिक परम्परा के अंतर्गत इन स्थानीय देवियों को मुख्य देवताओं की पत्नियों के रूप में मान्यता प्रदान कर दी गई। कभी उन्होंने लक्ष्मी के रूप में विष्णु की पत्नी का स्थान प्राप्त किया तो कभी पार्वती के रूप में शिव की पत्नी को ।
14. किस हद तक उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली मस्जिदों को स्थापत्य स्थानीय परिपाटी और सार्वभौमिक आदर्शों का सम्मिश्रण है?
उत्तर: भारत में इस्लाम के आगमन के बाद होने वाले परिवर्तन शासक वर्ग तक ही सीमित नहीं रहे। उसने संपूर्ण उपमहाद्वीप में विभिन्न सामाजिक समुदाय अर्थात् किसानों, शिल्पियों, योद्धाओं आदि सभी को प्रभावित किया। एक ही समाज में रहते-रहते, हिंदू-मुसलमान एक-दूसरे के खान-पान, रीति-रिवाजों, सांस्कृतिक एवं सामाजिक परंपराओं आदि की ओर आकर्षित होने लगे। धर्मान्तरित लोगों पर भी स्थानीय लोकाचारों का प्रभाव ज्यों-का-त्यों बना रहा। इस प्रकार स्थानीय परम्पराएँ एक सार्वभौमिक धर्म को प्रभावित करने लगीं।
उदाहरण के लिए, खोजा इस्माइली समुदाय के लोगों द्वारा कुरान के विचारों की अभिव्यक्ति के लिए देशी साहित्यिक विधा का सहारा लिया गया था। इसी प्रकार, मालाबार तट (केरल) पर बसने वाले मुस्लिम व्यापारियों ने स्थानीय मलयालम भाषा को अपनाने के साथ- साथ मातृकुलीयता तथा मातृगृहता जैसे स्थानीय आचारों को भी अपना लिया था। एक सार्वभौमिक धर्म के स्थानीय परम्पराओं के साथ सम्मिश्रण का संभवत: सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उदाहरण मस्जिद स्थापत्य के क्षेत्र में देखने को मिलता है। उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली अनेक मस्जिदों का स्थापत्य स्थानीय परिपाटी और सार्वभौमिक आदर्शों का सराहनीय सम्मिश्रण है।
मस्जिद स्थापत्य के कुछ तत्त्व सार्वभौमिक होते हैं; जैसे इमारत का मक्का की तरफ अनुस्थापन। इसे मेहराब (प्रार्थना का आला) तथा मिंबर (व्यास पीठ) की स्थापना से लक्षित किया जाता है। ऐसे सार्वभौमिक तत्त्व सभी मस्जिदों में समान रूप से पाए जाते थे। किन्तु मस्जिद स्थापत्य के अन्य तत्त्वों पर स्थानीय परिपाटियों का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उदाहरण के लिए, उपमहाद्वीप में बनाई गई मस्जिदों में अनेक तत्त्वों जैसे छत और निर्माण कार्य में प्रयोग किए जाने वाले सामान में भिन्नता देखने को मिलती है। इस भिन्नता का प्रमुख कारण था, मस्जिदों के स्थापत्य का स्थानीय स्थापत्य परम्पराओं से प्रभावित होना तथा निर्माण कार्य में स्थानीय रूप से उपलब्ध निर्माण सामग्री का प्रयोग किया जाना। उदाहरण के लिए केरल, बांग्लादेश और कश्मीर की मस्जिदों के स्थापत्य पर स्थानीय स्थापत्य का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
शिखर केरल के मंदिर स्थापत्य की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। अतः 13वीं शताब्दी में केरल में बनाई गई अनेक मस्जिदों की छतें शिखर के आकार की हैं। इसी प्रकार आधुनिक बांग्लादेश के जिला मैमनसिंग में 1609 ई० में बनाई गई अतिया मस्जिद के गुम्बदों एवं मीनारों में इस्लामी स्थापत्य कला शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इस मस्जिद का निर्माण ईंटों से किया गया था। 1395 ई० में झेलम नदी के किनारे पर बनाई गई शाहहमदान मस्जिद पर कश्मीरी स्थापत्य शैली का उल्लेखनीय प्रभाव है। यह मस्जिद कश्मीर काष्ठ (लकड़ी) स्थापत्यकला का एक प्रशंसनीय उदाहरण है। इसके शिखर और छज्जे नक्काशीदार हैं। उन्हें पेपरमैशी से सुसज्जित किया गया है। इस प्रकार यह कहना उचित ही होगा कि उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली मस्जिदों का स्थापत्य स्थानीय परिपाटी और सार्वभौमिक आदर्शों का सम्मिश्रण है।
15. बे-शरिया और बा-शरिया सूफी परम्परा के बीच एकरुपता और अंतर, दोनों स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः सूफ़ीवाद कई पन्थ अथवा सिलसिलों में संगठित था। सिलसिला का शाब्दिक अर्थ है-जंज़ीर, जो शेख और मुरीद के मध्य एक निरन्तर संबंध की परिचायक है। सूफी सिलसिला को मुख्य रुप से दो भागों में विभक्त किया जा सकता हैबा-शरीआ (बा-शरा) और बे-शरिया (बे- शरा)। बा-शरीआ का अभिप्राय था- इस्लामी कानून अर्थात् शरीआ का पालन करने वाले सिलसिले । बे-शरीआ का तात्पर्य था – ऐसे सिलसिले जो शरीआ में बँधे हुए नहीं थे। शरीआ की अवहेलना करने के कारण उन्हें बे-शरीआ के नाम से जाना जाता था। उल्लेखनीय है कि मुस्लिम समुदाय को निदेर्शित करने वाले कानून को शरीआ कहा जाता है। शरीआ कुरान शरीफ़ तथा हदीस पर आधारित है। हदीस का अर्थ है- पैगम्बर साहब से जुड़ी परम्पराएँ। पैगम्बर साहब के स्मृत शब्द और क्रियाकलाप भी इनके अंतर्गत आते हैं। अरब क्षेत्र के बाहर (जहाँ के आचार-विचार भिन्न थे) इस्लाम का प्रसार होने पर क्रियास अर्थात् सदृशता के आधार पर तर्क तथा इजमा अर्थात् समुदाय की सहमति को भी कानून का स्रोत माना जाने लगा। बे-शरीआ और बा- शरीआ सिलसिलों में कुछ एकरुपताएँ और कुछ अंतर विद्यमान थे।
एकरूपताएँ
1.दोनों सिलसिले एकेश्वर में विश्वास करते थे। उनके अनुसार अल्लाह एक है। वह सर्वोच्च, सर्वशक्तिशाली और सर्वव्यापक है।
2. दोनों अल्लाह के सामने पूर्ण आत्मसमर्पण पर बल देते थे।
3. दोनों पीर अथवा गुरु को अत्यधिक महत्त्व देते थे।
4. दोनों इबादत अर्थात् उपासना पर अत्यधिक बल देते थे। उनके अनुसार अल्लाह की इबादत करने से ही मनुष्य संसार से मुक्ति पा सकता था।
अंतर
1.बा-शरीआ सिलसिले शरीआ का पालन करते थे, किन्तु बे-शरीआ शरीआ में बँधे हुए नहीं थे।
2. बा-शरीआ सूफी सन्त खानकाहो में रहते थे। खानकाह एक फ़ारसी शब्द है, जिसका अर्थ है-आश्रम ख़ानक़ाह में पीर (सूफ़ी संत अर्थात् गुरु) अपने मुरीदों अर्थात् शिष्यों के साथ रहता था। खानकाह का नियंत्रण शेख, (अरबी भाषा में) पीर अथवा मुर्शीद (फ़ारसी भाषा में) के हाथों में होता था।
3. बे-शरीआ सूफी संत खानकाह का तिरस्कार करके रहस्यवादी एवं फ़कीर की जिन्दगी व्यतीत करते, उन्हें कलन्दर, मदारी, मलंग, हैदरी आदि नामों से जाना जाता था।
4. बा- शरीआ सफी सन्त गरीबी का जीवन व्यतीत करने में विश्वास नहीं करते थे। उनमें से अनेक ने सल्तनत की राजनीति में भाग लिया और सुल्तानों एवं अमीरों से मेल-जोल स्थापित किया। ऐसे सूफी संत कभी-कभी दरबारी पद भी स्वीकार कर लेते थे।
16. चर्चा कीजिए कि अलवार, नयनार और वीरशैवों ने किस प्रकार जाति प्रथा की आलोचना प्रस्तुत की?
उत्तरः अलवार और नयनार संतों ने जाति प्रथा व ब्राह्मणों की प्रभुता के विरोध में आवाज़ उठाई। इन संतों में कुछ तो ब्राह्मण, शिल्पकार और किसान थे और कुछ उन जातियों से आए थे जिन्हें अस्पृश्य माना जाता था। अलवार और नयनारे संतों की रचनाओं को वेद जितना महत्त्वपूर्ण बताया गया। जैसे अलवार संतों के मुख्य काव्य संकलन नलयिरादिव्यप्रबन्धम् का वर्णन तमिल वेद के रूप में किया जाता था। इस प्रकार इस ग्रंथ का महत्त्व संस्कृत के चारों वेदों जितना बताया गया जो ब्राह्मणों द्वारा पोषित थे। वीरशैवों ने भी जाति की अवधारणा का विरोध किया।
उन्होंने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानने से इंकार कर दिया। ब्राह्मण धर्मशास्त्रों में जिन आचारों को अस्वीकार किया गया था; जैसे- वयस्क विवाह और विधवा पुनर्विवाह, वीरशैवों ने उन्हें मान्यता प्रदान की। इन सब कारणों से ब्राह्मणों ने जिन समुदायों के साथ भेदभाव किया, वे वीरशैवों के अनुयायी हो गए। वीरशैवों ने संस्कृत भाषा को त्यागकर कन्नड़ भाषा का प्रयोग शुरू किया।
17. कबीर और बाबा गुरु नानक के मुख्य उपदेशों का वर्णन कीजिए। इन उपदेशों का किस प्रकार संप्रेषण हुआ?
उत्तरः कबीर के अनुसार संसार का मालिक एक है जो निर्गुण ब्रह्म है। वे राम और रहीम को एक ही मानते थे। उनका कहना था कि विभिन् तो केवल शब्दों में है जिनका आविष्कार हम स्वयं करते हैं। केवल जे फूल्या फूल बिन’ और ‘समंदरि लागि आगि जैसी अभिव्यंजनाएँ कबीर की रहस्यवादी अनुभूतियों को दर्शाती हैं। वे वेदांत दर्शन से प्रभावित हैं और सत्य को अलख (अदृश्य), निराकर ब्रह्मन् और आत्मन् कहकर संबोधित करते हैं। दूसरी ओर इस्लामी दर्शन से प्रभावित होकर वे सत्य को अल्लाह, खुदा, हजरत और पीर कहते हैं। बाबा गुरु नानक ने भी कबीर की तरह निराकार भक्ति का प्रचार किया। उन्होंने यज्ञ, मूर्ति पूजा और कठोर तप जैसे बाहरी आडम्बरों का विरोध किया।
हिंदू और मुसलमानों के धर्मग्रंथों को भी उन्होंने नकारा। बाबा के अनुसार परम पूर्ण रब का कोई लिंग या आकार नहीं होता। उन्होंने रब का निरंतर स्मरण व नाम जप को उपासना का आधार बताया। उन्होंने संगत (सामुदायिक उपासना) के नियम निर्धारित किए जहाँ सामूहिक रूप में पाठ होता था। उन्होंने गुरुपद परंपरा की भी शुरुआत की, जिसका पालन 200 वर्षों तक होता रहा। जहाँ कबीर ने अपने उपदेशों में क्षेत्रीय भाषा का इस्तेमाल किया, वहीं गुरुनानक ने अपने विचार पंजाबी भाषा के माध्यम से सामने रखा।
18. सूफी मत के मुख्य धार्मिक विश्वासों और आचारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तरः इस्लाम की आरंभिक शताब्दियों में धार्मिक तथा राजनीतिक संस्था के रूप में खिलाफत की बढ़ती शक्ति के विरुद्ध कुछ आध्यात्मिक लोगों का रहस्यवाद तथा वैराग्य की तरफ झुकाव बढ़ा। इन्हें सूफ़ी कहा जाने लगा। इन लोगों ने रूढ़िवादी परिभाषाओं तथा धर्माचार्यों द्वारा की गई क़ुरान और सुन्ना (पैगम्बर के व्यवहार) की बौद्धिक व्याख्या की आलोचना की। उन्होंने मुक्ति की प्राप्ति के लिए ईश्व की भक्ति और उनके आदेशों के पालन पर बल दिया। उन्होंने पैगम्बर मोहम्मद को इंसान-ए-कामिल बताते हुए उनका अनुसरण करने की सीख दी। सूफ़ियों ने कुरान की व्याख्या अपने निजी अनुभवों के आधार पर की ग्यारहवीं शताब्दी तक आते-आते सूफ़ीवाद एक पूर्ण विकसित आंदोलन था जिसका सूफ़ी और कुरान से जुड़ा अपना साहित्य था ।
संस्थागत दृष्टि से सूफ़ी अपने को एक संगठित समुदाय खानकाह (फारसी) के इर्द-गिर्द स्थापित करते थे। खानकाह का नियंत्रण शेख (अरबी), पीर अथवा मुर्शीद (फारसी) के हाथ में था। वे अनुयायियों (मुरीदों) की भर्ती करते थे और अपने वारिस (खलीफा) की नियुक्ति करते थे। आध्यात्मिक व्यवहार के नियम निर्धारित करने के अलावा खानकाह में रहने वालों के बीच के संबंध और शेख व जनसामान्य के बीच के रिश्तों की सीमा भी नियत करते थे। बारहवीं शताब्दी के आसपास इस्लामी दुनिया में सूफ़ी सिलसिलों का गठन होने लगा। सिलसिला का शाब्दिक अर्थ है-जंजीर, जो शेख और मुरीद के बीच एक निरंतर रिश्ते का द्योतक है, जिसकी पहली अटूट कड़ी पैगंबर मोहम्मद से जुड़ी है।
इस कड़ी के द्वारा आध्यात्मिक शक्ति और आशीर्वाद मुरीदों तक पहुँचता था। दीक्षा के विशिष्ट अनुष्ठान विकसित किए गए जिसमें दीक्षित को निष्ठा का वचन देना होता था, और सिर मुँड़ाकर थेगड़ी लगे वस्त्र धारण करने पड़ते थे। पीर की मृत्यु के बाद उसकी दरगाह (फ़ारसी में इसका अर्थ दरबार) उसके मुरीदों के लिए भक्ति का स्थल बन जाती थी। इस तरह पीर की दरगाह पर जियारत के लिए जाने की, खासतौर से उनकी बरसी के अवसर पर परिपाटी चल निकली। इस परिपाटी को उर्स (विवाह, मायने, पीर की आत्मा का ईश्वर से मिलन) कहा जाता था, क्योंकि लोगों का मानना था कि मृत्यु के बाद पीर ईश्वर से एकीभूत हो जाते हैं और इस तरह पहले के बजाय उनके अधिक करीब हो जाते हैं।
लोग आध्यात्मिक और ऐहिक कामनाओं की पूर्ति के लिए उनका आशीर्वाद लेने जाते थे। इस तरह शेख का वली के रुप में आदर करने की परिपाटी शुरू हुई। कुछ रहस्यवादियों ने सूफ़ी सिद्धांतों की मौलिक व्याख्या के आधार पर नवीन आंदोलनों की नींव रखी। ख़ानक़ाह का तिरस्कार करके यह रहस्यवादी, फकीर की जिंदगी बिताते थे। निर्धनता और ब्रह्मचर्य को उन्होंने गौरव प्रदान किया। इन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता था कलंदर, मदारी, मलंग, हैदरी इत्यादि। शरिया की अवहेलना करने के कारण उन्हें बे-शरिया कहा जाता था। इस तरह उन्हें शरिया का पालन करने वाले (बा-शरिया) सूफियों से अलग करके देखा जाता था।
19. क्यों और किस तरह शासकों ने नयनार और सूफी संतों से अपने संबंध बनाने का प्रयास किया?
उत्तरः चोल शासकों ने नयनार संतों के साथ संबंध बनाने पर बल दिया और उनका समर्थन हासिल करने का प्रयत्न किया। अपने
राजस्व के पद को दैवीय स्वरुप प्रदान करने और अपनी सत्ता के प्रदर्शन के लिए चोल शासकों ने सुंदर मंदिरों का निर्माण कराया और उनमें पत्थर और धातु से बनी मूर्तियाँ स्थापित करवाईं। इस प्रकार, लोकप्रिय संत कवियों की परिकल्पना को, जो जन भाषाओं में गीत रचते व गाते थे, मूर्त रूप प्रदान किया गया। चोल शासकों ने तमिल भाषा के शैव भजनों का गायन मंदिरों में प्रचलित किया।
परान्तक प्रथम ने संत कवि अप्पार, संबंदर और सुंदरार की धातु प्रतिमाएँ एक शिव मंदिर में स्थापित करवाईं। इन मूर्तियों को मात्र उत्सव के दौरान निकाला जाता था। सूफी संत सामान्यतः सत्ता से दूर रहने की कोशिश करते थे, किन्तु यदि कोई शासक बिना माँगे अनुदान या भेट देता था तो वे उसे स्वीकार करते थे। कई सुल्तानों ने ख़ानक़ाहों को करमुक्त भूमि इनाम में दे दी और दान संबंधी न्यास स्थापित किए। सूफी संत अनुदान में मिले धन और सामान का इस्तेमाल जरूरतमंदों के खाने, कपड़े एवं रहने की व्यवस्था तथा अनुष्ठानों के लिए करते थे। शासक वर्ग इन संतों की लोकप्रियता, धर्मनिष्ठा और विद्वत्ता के कारण उनका समर्थन हासिल करना चाहते थे।
जब तुर्की ने दिल्ली सल्तनत की स्थापना की तो उलेमा द्वारा शरिया लागू किए जाने की माँग को ठुकरा दिया गया था। सुल्तान जानते थे कि उनकी अधिकांश प्रजा गैर-इस्माली है। ऐसे समय में सुल्तानों ने सूफ़ी संतों का सहारा लिया जो अपनी आध्यात्मिक सत्ता को अल्लाह से उद्भुत मानते थे। यह भी माना जाता था कि सूफ़ी संत मध्यस्थ के रूप में ईश्वर से लोगों की ऐहिक और आध्यात्मिक दशा में सुधार लाने का कार्य करते हैं। शायद यही कारण है कि शासक अपनी कब्र सूफ़ी दरगाहों और ख़ानकाहों के नज़दीक बनाना चाहते थे।
20. उदाहरण सहित विश्लेषण कीजिए कि क्यों भक्ति और सूफी चिंतकों ने अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया?
उत्तरः यह सत्य है कि भक्ति और सूफ़ी चिंतकों ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया। वास्तव में भक्ति और सूफ़ी चिंतक देश के विभिन्न भागों सम्बन्धित थे। वे किसी भाषा विशेष को पवित्र नहीं मानते थे। उनका प्रमुख उद्देश्य जनसामान्य को मानसिक शान्ति एवं सांत्वना प्रदान करना था। अतः वे अपने विचारों को जनसामान्य तक उनकी अपनी भाषाओं में पहुँचाना चाहते थे। यही कारण था कि उन्होंने अपने उपदेशों में स्थानीय भाषाओं का प्रयोग किया। तमिलनाडु के अलवार (विष्णु के भक्त) और नयनार (शिव के भक्त) सन्तों ने अपने विचार जनसामान्य तक पहुँचाने के लिए स्थानीय भाषा का प्रयोग किया। वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते हुए तमिल में अपने इष्टदेव की स्तुति में भजन गाते थे।
उल्लेखनीय है कि अलवार और नयनार सन्त विभिन्न जातियों से संबंधित थे। उनमें से कुछ ब्राह्मण थे, कुछ किसान, कुछ शिल्पकार और कुछ तथाकथित ‘अस्पृश्य’ जातियों से भी संबंधित थे, जिन्हें वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत सबसे निचले सोपान पर रखा गया था। उन्होंने ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत प्रेम तथा भक्ति के संदेश को स्थानीय भाषाओं द्वारा दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में फैलाया। विभिन्न एवं स्थानीय भाषाओं में उपदेश देने के कारण उनकी रचनाओं को वेदों के समान महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। उदाहरण के लिए, अलवार सन्तों के एक मुख्य काव्य संकलन नलयिरादिव्यप्रबन्धम् को तमिल वेद कहा जाता है। इसी प्रकार नयनार परम्परा की उल्लेखनीय स्त्री भक्त करइक्काल अम्मइयार ने जनभाषा में भक्ति गीतों की रचना करके जनमानस पर अमिट प्रभाव छोड़ा। उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के मुख्य प्रचारकों ने भी अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न भाषाओं को प्रयोग किया। उन्होंने किसी भाषा विशेष को पवित्र नहीं माना और अपने विचार जनसामान्य की भाषा में प्रकट किए। उदाहरण के लिए कबीर ने अपने पदों में अनेक भाषाओं एवं बोलियों का प्रयोग किया है। उन्होंने अपने विचारों को प्रकट करने के लिए हिन्दी, पंजाबी, फारसी, ब्रज, अवधी एवं स्थानीय बोलियों के अनेक शब्दों का प्रयोग किया है। उनकी कुछ रचनाओं की भाषा सन्तभाषा है, जिसे निर्गुण कवियों की खास बोली समझा जाता है। कबीर की कुछ रचनाएँ उलटबाँसी (उल्टी केही उक्तियाँ) के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनकी रचना में उनके प्रचलित अर्थों को उल्टा कर दिया गया है। कबीर की बानियों का संकलन तीन विशिष्ट किंतु परस्पर व्यापी प्रणालियों में किया गया है।
“कबीर बीजक’ का संबंध वाराणसी तथा उत्तर प्रदेश के अन्य स्थानों के कबीर पंथियों से है और ‘कबीर ग्रंथावली’ का राजस्थान के दादूपंथियों से। कबीर के अनेक पदों का संकलन सिक्खों के आदिग्रंथसाहिब’ में किया गया है। इसी प्रकार गुरु नानक ने अपने विचार पंजाबी भाषा में ‘शब्द’ के माध्यम से जनसामान्य के सामने रखे। वे स्वयं इन शब्दों का भिन्न-भिन्न रागों में गायन करते थे। गुरु नानक के उत्तराधिकारी गुरु अंगद ने गुरु नानक के उपदेशों एवं शिक्षाओं को भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखने के उद्देश्य से गुरमुखी लिपि का विकास किया। सिखों के पवित्र धार्मिक ग्रन्थ गुरु ग्रन्थ साहिब में विभिन्न भाषाओं एवं बोलियों के शब्द मिलते हैं। इसमें गुरु नानक तथा उनके चार
उत्तराधिकारी गुरुओं की बानी के साथ-साथ बाबा फरीद, रविदास तथा कबीर जैसे सन्तों की बानी को भी संकलित किया गया है। मीराबाई ने अपने अंतर्मन की भावप्रवणता को अभिव्यक्त करने के लिए अनेक गीतों की रचना की। उनके गीत मुख्य रूप से ब्रज भाषा में और कुछ राजस्थानी एवं गुजराती में भी लिखे गए हैं। सूफी सन्तों ने भी अपने विचारों को विभिन्न भाषाओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया। चिश्ती सन्तों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता स्थानीय भाषाओं को अपनाना था। वे समाँ में स्थानीय भाषा का प्रयोग करते थे। उल्लेखनीय है कि दिल्ली में चिश्ती सिलसिले के लोग आपस में हिंदवी में बातचीत करते थे। पंजाब में बाबा फरीद ने क्षेत्र के लोगों में अपने संदेश का प्रचार करने के लिए पंजाबी में छन्दों की रचना की थी।
उनके कुछ छन्द गुरुग्रंथ साहिब में संकलित हैं। कुछ अन्य सूफियों ने ईश्वर के प्रति प्रेम को मानवीय प्रेम के रूपक द्वारा अभिव्यक्त करने के लिए लम्बी-लम्बी कविताओं की रचना की, जिन्हें मसनवी के नाम से जाना जाता है। सूफी कविता फ़ारसी, हिंदवी अथवा उर्दू में होती थी। कभी-कभी उसमें इन तीनों भाषाओं के शब्द विद्यमान होते थे। बीजापुर (कर्नाटक) के आस-पास सूफ़ी कविता की एक भिन्न विधा अस्तित्व में आई। इसके अन्तर्गत दक्खनी (उर्दू का एक रूप) में लिखी गई छोटी-छोटी कविताएँ आती हैं।
इनकी रचना 17वीं-18वीं शताब्दियों में इस क्षेत्र में बसने वाले चिश्ती सन्तों के द्वारा की गई थी। संभवतः इन रचनाओं का गायन घर में चक्की पीसने और चरखा कातने जैसे सामान्य कामों को करते हुए महिलाओं द्वारा किया जाता था। कुछ अन्य कविताओं की रचना लोरीनामा एवं शादीनामा के रूप में की गई। विद्वान इतिहासकारों के विचारानुसार संभवतः इस क्षेत्र के सूफ़ी सन्तों को यहाँ की स्थानीय भक्ति परम्परा ने अनेक रूपों में प्रभावित किया था। लिंगायतों द्वारा कन्नड़ में लिखे गए वचनों और पंढरपुर के सन्तों द्वारा मराठी में लिखे गए अभंगों ने भी चिश्तियों को पर्याप्त सीमा तक प्रभावित किया। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि भक्ति और सूफी चिन्तकों ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया।
21. इस अध्याय में प्रयुक्त किन्हीं पाँच स्रोतों का अध्ययन कीजिए और उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचारों की चर्चा कीजिए ।
उत्तर: इस अध्याय में प्रयुक्त किन्हीं पाँच स्रोतों के अध्ययन से उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचारों पर इस प्रकार चर्चा की जा सकती है।
स्रोत I (चतुर्वेदी और अस्पृश्य)
से पता चलता है कि अलवार सन्त जाति व्यवस्था को निरर्थक मानते थे और जाति-पाँति के भेद-भावों में विश्वास नहीं करते थे। अपने विचारों को प्रकट करते हुए एक ब्राह्मण अलवार तोंदराडिप्पोडि ने अपने काव्य में लिखा था-” -“चतुर्वेदी जो अजनबी हैं और तुम्हारी सेवा के प्रति निष्ठा नहीं रखते, उनसे भी अधिक आप (हे विष्णु) उन ‘दास’ को पसन्द करते हैं, जो आपके चरणों से प्रेम रखते हैं, चाहे वे वर्ण- व्यवस्था के परे हों।”
स्रोत II (शास्त्र या भक्ति)
से स्पष्ट होता है कि अलवार सन्तों के समान नयनार सन्तों ने भी ब्राह्मणों की जन्म पर आधारित श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं किया। उनका विचार था कि शिव के अनुराग और भक्ति के बिना ब्राह्मणों का शास्त्रज्ञान, ऊँचा कुल, गोत्र सब निरर्थक है, क्योंकि ईश्वर की दृष्टि में वास्तविक महत्त्व शास्त्र ज्ञान अथवा गोत्र और कुल का नहीं अपितु भक्ति और प्रेम का है। इन दोनों स्रोतों से यह भी पता लगता है कि अलवार सन्त विष्णु भक्त थे और नयनार सन्त शिव के उपासक
स्रोत III (एक राक्षसी ? )
एक स्त्री शिवभक्त करइक्काले अम्मइयार की कविता से लिया गया है।
इससे पता चलता है कि, उस समय घर के अन्दर रहना, शान्त रहना और मुधर वचन बोलना स्त्री के स्वाभाविक गुण माने जाते थे। किन्तु अम्मइयार ने स्त्रियों की पारम्परिक जीवन-शैली को ग्रहण नहीं किया। वह शिव को अपनी आराध्य देव मानती थी। उसने अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या के मार्ग का अनुसरण किया। स्त्रीभक्तों ने अपने सामाजिक कर्तव्यों का तो परित्याग कर दिया, किंतु वे न तो किसी भिक्षुणी समुदाय की सदस्य बनीं और न ही उन्होंने किसी वैकल्पिक व्यवस्था को स्वीकार किया। स्त्रीभक्तों ने पितृसत्तात्मक आदर्शों को स्वीकार नहीं किया और अपनी जीवन पद्धति एवं रचनाओं द्वारा उन्हें चुनौती दी।
IV अनुष्ठाने और यथार्थ संसार)
बासवन्ना द्वारा रचित एक वचन से सम्बन्धित है। बासवन्ना वीरशैव परम्परा के संस्थापक थे। वह जाति से ब्राह्मण थे और चालुक्य राजा के दरबार में एक मंत्री थे। उनके अनुयायी वीरशैव अर्थात् शिव के वीर और लिंगायत अर्थात लिंग धारण करने वालों के नाम से प्रसिद्ध हुए। आज भी वीरशैव कर्नाटक की संभवतः सर्वाधिक लोकप्रिय परम्परा है। वीरशैव अथवा लिंगायत शिव को अपना आराध्य देव मानते हैं। वे शिव की उपासना लिंग के रूप में करते हैं। वीरशैव अथवा लिंगायत जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था को स्वीकार नहीं करते। उन्होंने जाति-पाँति के भेद-भावों का विरोध किया तथा समाज में कुछ समुदाय के ‘पवित्र’ और कुछ के दूषित होने की ब्राह्मणीय अवधारणा की कटु आलोचना की।
उनके विचारानुसार मनुष्य की श्रेष्ठता का आधार उसका जन्म नहीं अपितु कर्म होने चाहिए। लिंगायत अनुष्ठानों की अपेक्षा यथार्थ भक्ति भाव पर अधिक बल देते हैं। उनके विचारानुसार परमदेव को अनुष्ठानों द्वारा नहीं अपितु भक्तिभाव द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। धर्म से जुड़े निरर्थक रीति-रिवाज एवं आडंबरों का विरोध करते हुए बासवन्ना ने लिखा था कि जब वे एक पत्थर से बने सर्प को देखते हैं तो उस पर दूध चढ़ाते हैं, यदि असली साँप आ जाए तो कहते हैं “मारो मारो”, देवता के उस सेवक को, जो भोजन परोसने पर खा सकता है, वे कहते हैं, “चले जाओ, चले जाओ।” किन्तु ईश्वर की प्रतिमा को, जो खा नहीं सकती, वे व्यंजन परोसते हैं।।”
स्रोत V (खम्बात का गिरजाघर)
उस फरमान (बादशाह का हुक्मनामा) का अंश है, जिसे महान मुगल सम्राट अकबर ने | 1598 ई० में जारी किया था। सम्राट ने यह फरमान खम्बात के गिरजाघर के सम्बन्ध में जारी किया था। इससे स्पष्ट होता है कि अकबर एक उदार एवं धर्म सहिष्णु सम्राट था। वह भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करना चाहता था। उसने अपने पूर्ववर्ती मुस्लिम शासकों के समान धर्म के नाम पर अत्याचार अथवा रक्तपात की नीति का अनुसरण नहीं किया। उसने बलपूर्वक धर्म परिवर्तन पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा सभी धर्म एवं सम्प्रदाय को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की। इस स्रोत से यह भी स्पष्ट होता है कि कट्टर मुस्लिम सम्राट के उदार धार्मिक विचारों के विरोधी थे।
22. इस अध्याय में वर्णित किन्हीं 2 धार्मिक उपदेशकों चिंतकों संतों का चयन कीजिए और उनके जीवन व उपदेशों के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त कीजिए। इनके समय, कार्यक्षेत्र और मुख्य विचारों के बारे में एक विवरण तैयार कीजिए। हमें इनके बारे में कैसे जानकारी मिलती है और हमें क्यों लगता है कि वे महत्त्वपूर्ण हैं?
उत्तरः
1.बाबा गुरु नानक -बाबा गुरु नानक (1469-1539) का जन्म एक हिंदू व्यापारी परिवार में हुआ। उनका जन्मस्थल मुख्यतः इस्लाम धर्मावलंबी पंजाब का ननकाना गाँव था जो रावी नदी के पास था। उन्होंने फारसी पढ़ी और लेखाकार के कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया। उनका विवाह छोटी आयु में हो गया था, किंतु वह अपना अधिक समय सूफ़ी और भक्त संतों के बीच गुजारते थे। उन्होंने दूर- दराज की यात्राएँ भी की। बाबा गुरु नानक का संदेश उनके भजनों और उपदेशों में निहित है। इनसे पता लगता है कि उन्होंने निर्गुण भक्ति का प्रचार किया। धर्म के सभी बाहरी आडंबरों को उन्होंने अस्वीकार किया; जैसे-यज्ञ, आनुष्ठानिक स्नान, मूर्ति पूजा व कठोर तप। हिंदू और मुसलमानों के धर्मग्रंथों को भी उन्होंने नकारा। बाबा गुरु नानक के लिए परम पूर्ण ‘रब’ का कोई लिंग या आकार नहीं था। उन्होंने इस रब की उपासना के लिए एक सरल उपाय बताया और वह था उनका निरंतर स्मरण व नाम का जाप उन्होंने अपने विचार पंजाबी भाषा में शबद के माध्यम से सामने रखे।
बाबा गुरु नानक ये शब्द अलग-अलग रागों में गाते थे और उनका सेवक मरदाना रबाब बजाकर उनका साथ देता था। बाबा गुरु नानक अपने अनुयायियों को एक समुदाय में संगठित किया। सामुदायिक उपासना (संगत) के नियम निर्धारित किए जहाँ सामूहिक रूप से पाठ होता था। उन्होंने अपने अनुयायी अंगद को अपने बाद गुरुपद पर आसीन किया; इस परिपाटी का पालन 200 वर्षों तक होता रहा। ऐसा प्रतीत होता है कि बाबा गुरु नानक किसी नवीन धर्म की स्थापना नहीं करना चाहते थे, किंतु उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने अपने आचार-व्यवहार को सुगठित कर अपने को हिंदू और मुसलमान दोनों से पृथक् चिहनित किया। पाँचवें गुरु अर्जुन देव जी ने बाबा गुरु नानक तथा उनके चार उत्तराधिकारियों, बाबा फरीद, रविदास और कबीर की बानी को आदि ग्रंथ साहिब में संकलित किया। इनको ‘गुरबानी’ कहा जाता है और ये अनेक भाषाओं में रचे गए।
2. मीराबाई – मीराबाई संभवतः
भक्ति परंपरा की सबसे सुप्रसिद्ध कवयित्री हैं। उनकी जीवनी उनके लिखे भजनों के आधार पर संकलित की गई है। वह मारवाड़ के मेड़ता जिले की एक राजपूत राजकुमारी थीं जिनका विवाह उनकी इच्छा के विरुद्ध मेवाड़ के सिसोदिया कुल में कर दिया गया। मीराबाई ने अपने पति की आज्ञा की अवहेलना करते हुए विष्णु के अवतार कृष्ण को अपना एकमात्र पति स्वीकार किया। उन्हें विष देकर जान से मारने का असफल प्रयास भी किया गया। उन्होंने पति और राजभवन के ऐश्वर्य को त्याग कर विधवा के समान सफेद वस्त्र धारण कर लिया और संन्यासिनी बन गईं। कुछ परंपरा के अनुसार मीरा के गुरु रैदास थे जो एक चर्मकार थे। इससे पता चलता है कि मीरा ने अतिवादी समाज की रूढ़ियों का उल्लंघन किया। उनके भक्ति गीत अंतर्मन की भाव प्रवणता को व्यक्त करने वाले हैं। उनके रचित पद आज भी स्त्रियों और पुरुषों द्वारा गाए जाते हैं।