1. परोपकार
परोपकार दो शब्दों के मेल से बना हैं। पर + उपकार ।
परोपकार का अर्थ है, दूसरों की भलाई, करना। जिस तरह हाथ कंगन से नही बल्कि दान से शोभता है, उसकी प्रकार हमारा शरीर’ कपड़ों, और आभूषणों से नही शोभता बल्कि परोपकार से शोभता है। परोपकार सबसे बड़ा धर्म हैं। अगर हम किसी की मलाई स्वर्य की भावना से प्रेरित होकर करते है, अगर हम किसी को दस रुपये यह सोचकर हम देते है, कि एक दिन उससे बीस रुपये मिलेंगे। तो इसे परोपकार नहीं व्यापार कहते है। प्रकृति भी हमें परोपकार शिक्षा देती है। सूर्य हमे प्रकाश देती है, चन्द्रमा अपनी चांदनी छिटकाकर भीतलता प्रदान करता है, वायु निरंतर गति से बहती हुई हमें जीवन देती है। तथा वर्षा का जल धरती को हरा भरा बनाकर हमारी खेती को लहलता देती है। प्रकृति से परोपकार की शिक्षा ग्रहण कर हमे भी परोपकार की भावना को अपनाना चाहिए। सच तो यह है कि मनुष्य एक शून्य के सदृश है। उसका तबतक कुछ मूल्य नही है। जबतक उसके ह्रदय में परोपकार की भावना का उदय न हो। सच्चा परोपकार अपने कर्मा की ओर कभी ध्यान नहीं देता। परोपकार उसकी हो जाती है। पेड़ जमीन से रस ग्रहण करने में लगा रहता है। उसे यह ध्यान भी होता कि उसमें कितने फल या फूल लगेंगे और कब लगेंगे । परोपकार करने से आत्मा को सच्चे आनंद की प्राप्ति होती हो उसे अलौकिक आनंद मिलता है, उसके आनंद की तुलना भौतिक सुखों से नही की जा, सकती। सच्चा आनंद तो परोपकारियों को प्राप्त होता है।
2. विद्यार्थी जीवन का लक्ष्य
प्रत्येक विद्यार्थी के जीवन में सफलता के लिए लक्ष्य होना चाहिए। बिना लक्ष्य के विद्यार्थी जीवन अधुरा है, और अगर विद्यार्थी जीवन अधुरा है तो हमारा पूरा मनुष्य जीवन अधुरा है’ प्रत्येक छात्र को यह अनुभव करना चाहिए कि वह एक ऐसी अवधि से होकर गुजर रहा है जो उसके भाग्य और भविष्य निर्माण करने की निर्णायक भूमिका अदा करेगी।
इन्हीं दिनो श्रेष्ठ विचार, सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृतियों का अभ्यास किया जाता रहे, तो उसका प्रभाव जीवनभर बना रहता है और सुख शांति का संभावनाएँ साकार होती है’ प्रत्येक विधार्थी का सबसे लक्ष्य होना चाहिए सच्चे शिक्षक की खोग, विद्यार्थी के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण एवं सबसे उच्चा स्थान शिक्षक का होता है। जिनपर हमारा भविष्य निर्भर करता है। शिक्षक की पहचान, सुन्दरता से नही उनके गुणों से होती है। जो विद्यार्थी शिक्षक के बताये हुए मार्ग पर चलता है तो उसके जीवन में छोटे-छोटे लक्ष्य को पूरा होने में देर नही लगता। विद्या सरस्वती माता का देन है कि उसे विद्या से हमारी दोस्ती मात्र शिक्षक ही करा सकते हैं। शिक्षक हमे बताते है कि विद्यार्थी का लक्ष्य डीग्री प्राप्त करना, नही बल्कि उसे सही से विद्या ग्रहण करना । वहीं हमें बताते है कि, यह विद्याथी जीवन तुम्हें बार – बार नहीं मिलेगा। इसको पहचानो और इससे दोस्ती करो । एक समय आयेंगा कि यह विद्यार्थी जीवन छीन लिया जायेगा। जब तक विद्यार्थी जीवन है तुम लाभ उठाओं, अगर लाभ नहीं उठा पाया तो तुमको पछताना पड़ेगा | प्रत्येक विद्यार्थी के लिए आगे बढ़ने ने के लिए प्ररेणा की जरूरत होती है’ और प्रेरणा हमे भिक्षक के द्वारा मिलती हैं। और जो विद्यार्थी शिक्षक के बताए हुए मार्ग पर चलते हैं उनकी मंजिल दूर नहीं बल्कि नजदीक होती हैं।
3. विजेता बनना है, तो हमेशा बड़ा सोचें
महाभारत का युद्ध होना निश्चित हो गया था. कौरव और पांडव दोनों अपनी- अपनी शक्ति बढ़ाने में लगे हुए थे. श्रीकृष्ण से सहायता मांगने अर्जुन उनके महल में पहुंचे. श्रीकृष्ण उस समय सो रहे थे. अर्जुन शयनकक्ष में पहुंच कर श्रीकृष्ण के चरणों के पास बैठ गये. दुर्योधन वहां पहले से ही सिरहाने की ओर बैठा हुआ था.
भगवान शयन के बहाने अर्जुन और दुर्योधन को परखना चाहते थे. आंखे खुलीं, भगवान ने पहले अर्जुन को देखा, बोले- कहो अर्जुन कैसे आना हुआ ?
अब दुर्योधन घबराया, कृष्ण अपना सब कुछ अर्जुन को दे देंगे, तब उसका क्या होगा. अतः बोला- मैं अर्जुन से पहले आया हूं.
‘आये होगे’, श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- ‘मैंने अर्जुन को पहले देखा है. मैं जानता हूं कि तुम दोनों मुझसे सहायता लेने आये हो. मैं पहले ही कह दूं कि युद्ध के समय एक ओर मेरी अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित सेना रहेगी और दूसरी ओर मैं स्वयं रहूंगा. मैं युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊंगा. यह चयन अर्जुन को पहले करना है कि वह मेरी सेना ले या मुझे. अर्जुन तुमसे छोटा है और मैंने पहले उसे देखा है. दोनों तरह से यह अधिकार अर्जुन का है.’ अब दुर्योधन घबराया कि अर्जुन कहीं श्रीकृष्ण की सेना न मांग ले.
अर्जुन ने कहा- ‘भगवान मैं आपको मांगता हूं. आपके बिना मैं आपकी सेना लेकर क्या करूंगा. आपको मेरे रथ का सारथि बनना होगा.’ दुर्योधन हर्षित हो श्रीकृष्ण की सेना लेकर लौट गया. युद्ध में अर्जुन की जीत हुई. महाभारत का युद्ध इसका प्रमाण है. अर्जुन ने श्रीकृष्ण का चयन कर बड़ा सोचा. उसे अंदाजा था श्रीकृष्ण की सेना से बड़े वे खुद हैं.
एक साधारण मैट्रिक पास लड़का, जो एक प्राइमरी टीचर का पुत्र था, सिर्फ अपने कार्य पद्धति की वजह से व्यापार जगत में जीवंत किवदंती बन गया. उनका मूल मंत्र था, ‘बड़ा सोचो, तेजी से सोचो व सबसे पहले सोचो. विचारों पर किसी का एकाधिकार नहीं होता.’ अपना विश्लेषण आप खुद सबसे बेहतर कर सकते हैं. सोचें और खुद से सवाल पूछ कर खुद को ही जवाब दें कि आपमें कितनी के क्षमता है और आप क्या कर सकते हैं. अपनी क्षमताओं से कम सोचना खुद प्रति नाइंसाफी होगी. विजेता बनना है, तो बड़ा सोचें. हालांकि इसका यह मतलब भी नहीं आप पहले ही यह सोच लें कि मुझे आइएएस बनना है, अगर आइएएस नहीं बन पाया, तो कम से कम क्लर्क तो बन ही जाऊंगा. ऐसा सोचने पर आप शायद क्लर्क भी नहीं बन पायें, क्योंकि आइएस बनने को लेकर आप पहले से ही शंका में हैं. अगर आपको अपनी क्षमताएं आइएएस के लायक लगती हैं, तो सिर्फ आइएएस बनने के बारे में ही सोचें. अपने सपनों को ऊंचा रख कर उसे सपने तक सीमित ही नहीं कर देना है, बल्कि उस सपने को हकीकत में बदलने के लिए सही दिशा में प्रयास भी करना होगा.
4. जरूरी नहीं कि मदद करनेवाला आपका दोस्त ही हो
गरमी से परेशान एक पक्षी ने ठंडे स्थान पर जाने के लिए दक्षिण की ओर उड़ान भरी वहां काफी ठंड थी. ठंड इतनी जबरदस्त थी कि वह पक्षी नीचे गिर पड़ा और बिल्कुल बर्फ की तरफ जम गया. वह जमीन पर बेहोश पड़ा थी कि एक गाय ने उसके ऊपर गोबर कर दिया. शरीर के ऊपर गोबर पड़ने से पक्षी को गरमाहट का एहसास हुआ. उसे, होश आ गया. वह बहुत खुश था और खुशी में उसने चहकना शुरू कर दिया.. पास से एक बिल्ली गुजर रही थी. उसके कानों में भी उस पक्षी की चहचाहट सुनायी दी. उसने इधर-उधर ढूंढ़ना शुरू किया. उसने देखा कि एक पक्षी गाय के गोबर में फंसा है. बिल्ली को देख कर पक्षी को लगा कि वह उसे बचाने आयी है, लेकिन उस बिल्ली ने पहले तो उसे वहां से निकाला और और फिर अपना भोजन बना लिया. इस कहानी से हमें प्रबंधन की तीन महत्वपूर्ण बातें सीखने को मिलती हैं, जिनका हमें हमेशा ध्यान रखना चाहिए.
1.अगर आप किसी के कारण मुसीबत में पड़ गये हों, तो यह जरूरी नहीं कि.. वह आपका दुश्मन ही हो.
2. आपको मुसीबत से निकालनेवाला आपका दोस्त ही हो, यह हमेशा जरूरी नहीं होता.
3. जब आप किसी बड़ी मुसीबत में हों, तो बेहतर है कि चुपचाप अपना मुह बंद रखें और बेहतर समय का इंतजार करें.
हम भारतीय दिल से बेहद भावुक होते हैं. किसी के द्वारा की गयी थोड़ी— सी मदद से प्रभावित होकर हम उसे पूरी जिंदगी के लिए ही दोस्त मान लेते हैं.’ इसके विपरीत अगर किसी की लापरवाही या नासमझी के कारण हम परेशान – में पड़ जायें, तो हमारे लिए वह व्यक्ति दुश्मन बन जाता है. दोनों ही स्थितियों में हम बाकी स्थितियों पर विचार नहीं करते. एक सफल प्रोफेशनल बनना है, तो हमें हमेशा इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि कौन हमारे- दोस्त हैं और कौन दुश्मन कब कौन दगा दे दे या कब कोई आपके लिए अवसर का दरवाजा खोल दे, आप इसका अनुमान नहीं लगा सकते. इसलिए हमेशा अलर्ट रहें.
5. यह कतई न सोचें कि आपके बिना काम नहीं चल सकता
किसी भी प्रोजेक्ट की सफलता या विफलता बहुत हद तक उसके लीडर पर निर्भर करती है. लीडर पर भरोसा करके ही प्रोजेक्ट का दायित्व उसे सौंपा जाता है. संस्थान हमेशा यही चाहता है कि लीडर संस्थान को अपना बेस्ट दे, तो दूसरी ओर टीम के बाकी सदस्य चाहते हैं कि वे अपने लीडर से कुछ न कुछ सीखते रहें. ऐसे में लीडर पर दोहरी जिम्मेवारी होती है. एक तो उसे संस्थान को बेस्ट देना होता है और दूसरा उसे टीम के सदस्यों को बेस्ट देने के लिए प्रेरित करना होता है.
अगर आप एक लीडर हैं और चाहते हैं कि खुद में लीडरशिप क्वालिटी को बनाये रखें, तो आपको अपनी कमियों पर भी गौर करते रहना होगा. आपको दूसरों की अच्छाइयों को उभारना है. हो सकता है कि वाकई आपके टीम मेंबर अच्छा नहीं कर रहे हों, पर यह आपका दायित्व है कि उन्हें प्रेरित करें, उनमें जोश भरें. इसके लिए जरूरी है कि आप अपने दायरे से बाहर निकलें. खुद को दर्पण के सामने रख कर पता करते रहें कि कहीं मैं आत्ममुग्धता का शिकार तो नहीं. दूसरों के काम को रिजेक्ट कर देना दुनिया का सबसे आसान काम है, क्योंकि अगर ठान लिया है आपने कि गलतियां निकालनी हैं, तो हजार कारण मिल जायेंगे.”
अपने अच्छे काम के लिए खुद की पीठ जरूर थपथपाएं. खुद को प्यार करना अच्छा है, लेकिन हमेशा दूसरों को कम आंकना सही नहीं. अगर आप ही सकारात्मक नहीं रहेंगे, तो टीम में आत्मविश्वास कहां से आयेगा. आपको टीम के सदस्यों का सच्चा हितैषी बनना होगा और उनके काम का विश्लेषण ऐसे करना होगा कि आप केंद्र में न रहें, अन्यथा टीम के सदस्य आपके सामने तो आपकी तारीफ करेंगे, लेकिन पीठ पीछे आपकी आलोचना ही करेंगे, जो अंततः प्रोजेक्ट के लिए अच्छा नहीं होगा.
याद रखें कि आप लीडर हैं आपकी हर बाधा को पार करना है. नौकरी बचाने के चक्कर में न रहें हमेशा लर्निंग प्रोसेस में रहें. आपसे पहले भी इस टीम को कोई और लीड कर रहा था और आपके बाद भी कोई न कोई लीड करेगा. यह कतई न सोचें कि आपके बिना काम नहीं चल सकता.
6. काम शुरू कर दिया, तो उसमें पूरी ताकत लगाएं
1920-1930 के दौरान ऑस्ट्रिया के स्टीफन ज्विग दुनिया के बड़े लेखकों में थे. वे एक बार एक बड़े कलाकार से मिलने गये. कलाकार उन्हें अपने स्टूडियो मे ले गया और मूर्तियां दिखाने लगा. दिखाते दिखाते एक मूर्ति के सामने आया.’ बोला, ‘यह मेरी नयी रचना है.’ इतना कह कर उसने उस पर से गीला कपड़ा हटाया. फिर मूर्ति को ध्यान से देखा. उसकी निगाह उस पर जमी रही. जैसे अपने से ही कुछ कह रहा हो, वह बड़बड़ाया, ‘इसके कंधे का यह हिस्सा थोड़ा भारी हो गया है.’ उसने ठीक किया. फिर कुछ कदम दूर जाकर उसे देखा, फिर कुछ ठीक किया. इस तरह एक घंटा निकल गया. ज्विग चुपचाप खड़े-खड़े देखते रहे. जब मूर्ति से संतोष हो गया तो कलाकार ने कपड़ा उठाया, धीरे से उसे मूर्ति पर लपेट दिया और वहां से चल दिया. दरवाजे पर पहुंच कर उसकी निगाह पीछे गयी तो देखता है कि कोई पीछे-पीछे आ रहा है. अरे, यह अजनबी कौन है ? उसने सोचा. घड़ी भर वह उसकी ओर ताकता रहा. अचानक उसे याद आया कि यह तो वह मित्र है, जिसे वह स्टूडियो दिखाने साथ लाया था. बोला, ‘मेरे प्यारे दोस्त, मुझे क्षमा करना. मैं आपको एकदम भूल ही गया था.”
ज्विग ने लिखा है, ‘उस दिन मुझे मालूम हुआ कि मेरी रचनाओं में क्या कमी थी. शक्तिशाली रचना तब तैयार होती है, जब आदमी सारी शक्तियां बटोर कर एक ही जगह पर केंद्रित कर देता है.
सुकरात बहुत बड़े दार्शनिक थे. एक दिन उनकी पत्नी ने उनसे बाजार से साग लाने को कहा. वह चले, पर मन दर्शन की किसी गुत्थी मे उलझा था. सीढ़ियां उतरने लगे कि मन की समस्या ने उनकी गति रोक दी. वह सीढ़ियों पर ही खड़े थे. वह बड़ी झल्लाई, कुछ उल्टी-सीधी बातें कही. सुकरात का ध्यान टूटा. बोले, ‘मैं अभी साग लाता हूं.’ दो-तीन सीढ़ियां तेजी से उतरे, पर मन फिर उलझ गया. पैर फिर रुक गये. बहुत देर हो गयी. पत्नी चौका साफ करके गंदे पानी की बाल्टी उठा कर फेंकने चली तो देखती क्या है कि वह सीढ़ियों से नीचे भी नहीं उतरे हैं. उसने बाल्टी का पानी उनके ऊपर डाल दिया. उन्होंने हंस कर बस इतना ही कहा, ‘देवीजी इसमें अचरज की कोई बात नहीं है. बिजली की कड़क के बाद पानी तो आना ही था.’ चित्त की एकग्रता से बहुत-सी घरेलू उलझनें हुई, लेकिन उसी की बदौलत आज सुकरात को दुनिया याद करती है.
बहुत-से कामों में हमें सफलता नहीं मिलती तो इसकी वजह यह है कि हम उन कामों को पूरे मन से नही करते. काम उठाया, थोड़ा-सा किया, मन में दुविधा पैदा हो गयी-यदि यह काम नहीं हो पाया तो? नहीं, इसे ऐसे करें तो ठीक रहेगा. बेहतर होगा कि पहले अच्छी तरह सोच लें, उसके बाद काम शुरू करें. एक बार शुरू कर दिया तो उसमें अपनी पूरी ताकत लगा दें. काम में लेकिन और परंतु जैसे शब्दों की गुंजाइश ही न रहे. जिसकी निगाह इधर-उधर भटकती रहती है, वह अपने लक्ष्य को नहीं देख सकता. तांगे मे घोड़े की आंखों के दोनों ओर पट्टे बांध देते हैं. क्यों ? इसलिए कि उसे सामने का ही रास्ता दिखाई दे दायें-बायें न देखे.
7. संतुष्टि से एक कदम आगे ले जाएं क्लाइंट को
कॉरपोरेट वर्ल्ड में कंपनियां अपने ग्राहकों को खुश करने के लिए हर तरह का प्रयास करती है. उन्हें इस बात का एहसास दिलाती हैं कि वे खास और सम्मानीय ग्राहक हैं…
एक बार एक व्यक्ति ने अपनी कार को मरम्मत के लिए गैराज में दिया. गैराज बड़ा था, जिसमें कई लोग काम करते थे. इनमें एक युवा कर्मचारी भी था. गैराज के मालिक ने कार सुधारने का जिम्मा उसी युवा कर्मचारी को दिया. गाड़ी मालिक को गैराज मालिक ने शाम को आने के लिए कहा था. युवा साथी पूरी तन्मयता के साथ गाड़ी की खराबी दूर करने में जुट गया. उसके साथियों ने उससे कहा कि तुम इतनी मेहनत क्यों कर रहे हो. गाड़ी शाम को देनी है. अभी तो काफी समय है.
युवा साथी अपने काम में जुटा रहा. उसने न केवल गाड़ी को बेहतरीन तरीके से सुधारा, बल्कि उसने कार की सफाई इतनी अच्छी तरह से कर दी कि कार बिल्कुल नयी जैसी लगने लगी. कार की सफाई के लिए न तो कार मालिक ने कहा था और न ही गैराज मालिक ने इस बात को लेकर उसके साथियों ने उसका खूब मजाक उड़ाया. युवा कर्मचारी ने इस मजाक को दिल से नहीं लगाया. शाम को गाड़ी मालिक जब कार लेने आया, तब आश्चर्य में पड़ गया कि उसकी कार बिल्कुल नयी जैसी दिखने लगी.
गाड़ी मालिक ने पूछा कि कार का काम किसने किया. गैराज मालिक ने युवा कर्मचारी की ओर इशारा किया. गाड़ी मालिक ने उससे बातचीत की और उससे यह पूछा की आखिर तुमने किसके कहने पर गाड़ी की सफाई की. युवा कर्मचारी ने कहा, कि वह बस अपना काम कर रहा था और उसे लगा कि गाड़ी को न केवल सुधारना चाहिए, बल्कि जितना बेहतर हो सकता है, उतना बेहतर करके देना चाहिए. उसके जवाब से गाड़ी मालिक न केवल संतुष्ट हुआ, बल्कि उसने ज्यादा वेतन पर अपनी फैक्टरी में उसे नौकरी भी दे दी.
फ्रेंड्स काम करना अलग बात है और काम को बेहतर तरीके से करना अलग. आगे वही बढ़ते हैं, जो हमेशा अपने काम में बेस्ट देने की कोशिश करते हैं. कॉरपोरेट वर्ल्ड में अब बात 100 फीसदी की नहीं, 125 फीसदी की होती है. 100 फीसदी तो सभी देते हैं. असल में 100 फीसदी देना जॉब में बने रहने के लिए जरूरी है, लेकिन आगे बढ़ना है, तो 125 फीसदी देना होगा. 100 से ज्यादा यानी एक्स्ट्रा एफर्ट. कर्मचारी अगर सामान्य कामकाज के अलावा अपनी ओर से कोई एक्स्ट्रा एफर्ट करते हैं, तो वे अपने लिए खास जगह बना पाते हैं.
अगर आप कंपनी के सेल्स डिपार्टमेंट में हैं, तो अपने क्लाइंट को संतुष्ट करने के लिए आप अपनी ओर से पूरी मेहनत करते हैं. यह मेहनत उसी स्तर तक होती है, जिस स्तर की क्लाइंट अपेक्षा रखते हैं. पर यही काफी नहीं. उन्हें इस स्तर से आगे ले जाना है आपको संतुष्टि से एक कदम आगे. ऐसा कर आप क्लाइंट के साथ व्यक्तिगत रिश्ता बना लेते हैं, जो आगे आपके टारगेट पूरा करने में भी फायदेमंद साबित होता है.
8. कंपनी में शक्तियों का विकेंद्रीकरण जरूरी
मुंबई के गिरगांव में रहनेवाली सात महिलाओं द्वारा पापड़ बनाने की शुरुआत आज पूरे देश में लघु उद्योगों की सफलता का एक अच्छा उदाहरण है. हालांकि भारत के विभिन्न हिस्सों में रहनेवाली महिलाएं अपने स्तर पर पापड़ बनाती हैं, फिर भी लिज्जत पापड़ ने इसे एक उद्योग बना कर विश्वस्तर तक पहुंचा दिया है.. मात्र 80 रुपये का कर्ज लेकर गिरगांव की सात महिलाओं ने अपने स्तर पर पापड़ बनाने का काम शुरू किया. ये महिलाएं इस काम के लिए प्रशिक्षित नहीं थीं, परंतु उनके अंदर अद्भुत दृढ़ता थी. उन्होंने अपने सामान्य गुणों को विकसित किया और यही उनका हथियार बन गया. अपने घरों की छतों को मुख्य कारखाना बनाया. आज इस पहल को 40 से ज्यादा साल हो गये हैं और इन 40 सालों में समूह का स्वरूप काफी बदला भी है..
अब लिज्जत समूह के उत्पादों का उत्पादन मुंबई की मात्र सात छतों पर न होकर देश के कई हिस्सों में होता है. कोई भी सामान्य महिला इस समूह की सदस्य बन सकती है. आधुनिकीकरण के इस दौर में भी लिज्जत समूह ने मशीनीकरण का सहारा नहीं लिया है. शायद इसलिए यह समूह देश के हजारों घरों को रोजगार दे रहा है. समूह के उत्पाद अमेरिका, ब्रिटेन सिंगापुर, हांगकांग, हालैंड तथा मध्यपूर्वी देशों में भी निर्यात किये जाते हैं.
लिज्जत पापड़ समूह द्वारा शून्य से शिखर तक पहुंचने के सफर का मूल राज इसकी शक्तियों के विकेंद्रीकरण में है. हरेक केंद्र की देखरेख के लिए संचालिका नियुक्त है, लेकिन संस्था की कार्यप्रणाली कुछ ऐसी है कि प्रत्येक सदस्य अपने स्तर पर पहल कर सकता है, निर्णय ले सकता है. सभी निर्णय हमेशा सर्वानुमति से ही लिए जाते हैं. एक सदस्य की आपत्ति से भी प्रस्ताव निरस्त हो सकता है.
इसी प्रकार उत्पादन भी किसी एक केंद्रीय स्थान पर न होकर सैकड़ों-हजारों घरो में होता है. उत्पाद और उसके पैकिंग की गुणवत्ता के निरीक्षण की व्यवस्था भी हरेक केंद्र पर होती है. इस प्रकार उत्पादन से लेकर उसकी पैकिंग, संग्रह तथा वितरण और लाभ तक की जिम्मेदारी शाखा केंद्र की ही होती है. इसके लिए कोई केंद्रीकृत व्यवस्था नहीं बनायी गयी है.
लिज्जत पापड़ समूह की दूसरी शक्ति है लोगों को महत्व देना. समूह अपनी प्रत्येक सदस्य जो कि अनिवार्यतः महिला ही होती है, को काफी महत्व देता है. लिज्जत ने आज घर में रह कर काम करने की इच्छा रखनेवाली महिलाओं को काफी प्रोत्साहित किया है. सभी सदस्यों को यहां एक समान भाव से देखा जाता है और इसीलिए कौन, क्या काम कर रहा है या कौन कितना वरिष्ठ है, इस पर ध्यान दिये बिना लाभ भी सभी को समान रूप से बांटा जाता है. एक 21 • सदस्यीय समिति यह तय करती है कि लाभ को किस रूप में बांटा जाये. संस्था को बांधनेवाली प्रमुख ताकत है आत्मगौरव और आत्मसम्मान का भाव और यही बातें किसी भी संस्थान को कर्मचारियों के लिए खास बना सकती हैं.
9. दूसरों को बदलने से सरल है खुद को बदलना
मेरे मित्र रजनीश बहुत दिनों बाद मुझसे मिलने आये. बताने लगे कि वह जिंदगी में कितना कुछ करना चाहते थे, लेकिन कुछ कर नहीं पाये. इतने में देश में व्यवस्था की बात होने लगी. वह बताने लगे कि राजनेताओं को देश कैसे चलाना चाहिए. अपने राज्य की कमजोरियों को कैसे दूर किया जा सकता है. अलग- अलग राज्य के मुख्यमंत्रियों की कमजोरियां क्या हैं, यह भी मुझे बताया. जब मैंने अपना आर्ट दिखाया, तो इसमें भी बहुत से परिवर्तन कर इसे और बेहतर बनाने के टिप्स दिये. जब मैंने पूछा कि आपकी खुद के लिए क्या सलाह है, तो वह झेंप गये. फिर कुछ सोच कर बोले, आपकी जैसी परिस्थिति व पैसा मेरे पास होता तो मै क्या नहीं कर सकता था. कितनी अजीब बात है कि हम खुद को बदलने की जगह हमेशा परिस्थितियों को दोष देते हैं. परिस्थितियां क्या हैं? असल में परिस्थितियां हम खुद बनाते हैं. हम जो सोचते हैं, जो करते हैं, उसी से परिस्थितियां बनती हैं. कई लोगों में बहुत सारे गुण होते हैं, वे बड़े ज्ञानी होते सीढी हैं, लेकिन खुद के लिए वे इसका इस्तेमाल नहीं कर पाते. होना यह चाहिए कि हम किसी को भी अगर सलाह दें, तो पहले यह देख लें कि क्या हमने वह किया है या हम वह कर सकते हैं..
एक मां अपने बेटे को गुरु महाराज के पास ले गयी. उसने गुरुजी से कहा- ‘स्वामी जी यह मिठाई बहुत खाता है, इसे कम मिठाई खाने का निर्देश दें.’ स्वामीजी ने उनसे एक माह बाद आने के लिए कहा. एक माह बाद स्वामीजी ने लड़के को बहुत ही अच्छे से समझाया. लड़के ने मां का हाथ पकड़ कर कम से कम मिठाई खाने का वचन दिया.
मां से रहा नहीं गया, उसने स्वामीजी से पूछा, ‘महाराज ये बातें तो आप एक माह पहले भी बता सकते थे. ‘
स्वामी जी बोले, ‘मिठाई मेरी भी कमजोरी थी. पहले मैंने अपनी कमजोरी दूर की, तब आपके बच्चे को समझा पाया. खुद को बदलना भी कठिन होता है, पर दूसरे को बदलने से ज्यादा सरल होता है.
आज के दौर में श्रोताओं की बड़ी कमी रह गयी है. हर कोई वक्ता बनना चाहता है. जिसके पास जितना ज्ञान है, वह दूसरों को दे देना चाहता है. दिक्कत यही होती है कि अपने लिए उस ज्ञान का प्रयोग नहीं करता. कभी ध्यान से सोचें. जो ज्ञान आप दूसरों को देते हैं, अगर उनमें से कुछ को भी खुद पर लागू करें, तो आपको कितना फायदा होगा. सफलता के लिए जिस प्रकार की कोशिशें, जिस प्रकार के गुण हम दूसरों को पैदा करने की सलाह देते हैं, वे हम खुद अपने लिए कर सकते हैं, विश्वास मानें यदि आप खुद बदलें, तो दुनिया बदल सकते हैं. हो सकता है कि एक बार में ये बातें किताबी लगे, लेकिन ऐसा करके देखें, बहुत जल्दी रिजल्ट आपके सामने होगा.
10. रास्ता पता है, तो चलने के लिए इंतजार न करें
हममें से ज्यादातर लोग यह जानते हैं कि कैरियर में कैसे सफल हुआ जा सकता है. हम यह भी जानते हैं कि मंज़िल तक पहुंचने का रास्ता क्या है. इतना कुछ जानने भर से ही हम यह मान लेते हैं कि सफल होना
तो अब चुटकियों का काम है. हां, उस रास्ते पर चलने के लिए हम सौ बार सोचते हैं. जाहिर सी बात है कि जो चलेगा, वह पहुंचेगा ही और जो नहीं चलेगा, उसे रास्ता पता भी हो, तो भी वह अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच सकता. इसलिए आप अगर रास्ता जानते हैं, तो अब समय है कि उस रास्ते पर अपने कदम भी बढ़ाइये.
एक बार एक व्यक्ति गौतम बुद्ध के पास आकर बोला, तथागत, मैं तो बहुत प्रयत्न करता हूं पर जीवन में धर्म का कोई प्रभाव नहीं दिखाई देता. इस पर बुद्ध ने सवाल किया, “क्या तुम बता सकते हो कि राजगृह यहां से कितनी दूर है?” उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, “दो सौ मील.” बुद्ध ने फिर पूछा, “क्या तुम्हें पक्का विश्वास है कि यहां से राजगृह दो सौ मील है?” व्यक्ति ने कहा, “हां, मुझे निश्चित मालूम है कि राजगृह यहां से दो सौ मील दूर है.” बुद्ध ने फिर प्रश्न किया, “”क्या तुम राजगृह का नाम लेते ही वहां अभी तुरंत पहुंच जाओगे ?”
यह सुन कर वह व्यक्ति आश्चर्य में पड़ गया. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि बुद्ध इस तरह के सवाल क्यों कर रहे हैं? फिर उसने थोड़ा सकुचाते हुए कहा- ‘अभी मैं राजगृह कैसे पहुंच सकता हूं. अभी तो मैं आपके सामने खड़ा हूं.. राजगृह तो तब पहुंचूंगा, जब वहां के लिए प्रस्थान करूंगा और दो सौ मील की यात्रा करूंगा. यह सुन कर बुद्ध मुस्कराए, फिर बोले, “यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है. तुम राजगृह को तो जानते हो, पर वहां तभी तो पहुंचोगे जब वहां के लिए प्रस्थान करोगे. यात्रा के कष्ट उठाओगे. उसके सुख-दुख झेलोगे. केवल जान लेने भर से तो वह चीज तुम्हें प्राप्त नहीं हो जायेगी. यही बात धर्म को लेकर भी लागू होती है. धर्म को सब जानते हैं, पर उस तक वास्तव में पहुंचने के लिए प्रयत्न नहीं करते. उसके लिए कष्ट नहीं उठाना चाहते. उन्हें लगता है कि सब कुछ आसानी से बैठे-बिठाये मिल जाये. इसलिए अगर तुम वास्तव में धर्म का पालन करना चाहते हो तो पहले लक्ष्य का निर्धारण करो फिर उस दिशा में चलने की कोशिश करो.